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Sunday, March 22, 2020

बिहार- दिवस, कोरोना और एक जरुरी मंथन

वैसे तो इस वर्ष के सभी समारोह कोरोना की वजह से रद्द कर दिए गए हैं, जो आवश्यक भी है; पर घर बैठे आपसे दो बातें तो हो ही सकती हैं.

एक बिहारी होने के नाते मेरे पास वो नजरिया भी है, जिससे हमलोग खुद को देखते हैं. साथ- ही- साथ पढ़ाई के सिलसिले में राज्य से बाहर रहने की वजह से वो नज़रिया भी है जिससे दूसरे राज्यों के लोग हमें देखते हैं. खैर, दूसरे राज्यों के लोग हमें किस नज़रिये से देखते हैं ये तो टेलीविज़न और अन्य संचार माध्यमों से भी पता चलता ही है; बस मेरे पास शायद इस बात का भी जवाब है कि उनका वैसा नजरिया क्यों है. 

मैं शुरू में ही यह बात स्पष्ट कर दूँ कि यह पोस्ट क्षेत्रवाद से प्रभावित नहीं है. मैं सर्वप्रथम एक भारतीय नागरिक हूँ. बिहार- दिवस पर बिहारीपन पर बात इसलिए कि बिहार भी भारत का ही एक छोटा टुकड़ा है और इस क्षेत्र की जो गलत छवि बनी हुई है, उसके कारणों का पता लग सके. 

कुछ अपवादों को छोड़कर हम बिहारियों की जो एक बात मैंने गौर की है वो ये है कि हम या तो अति- आत्ममुग्धदता के शिकार होते हैं अथवा अति- आत्महीनता के. बचपन से अबतक जो दो बातें मैंने सबसे ज्यादा सुनी है वो हैं-

"हमलोग के इतना बुद्धि देश में और कोनो के पास होता है जी? सब अधिकारी यही से बनता है न. महान धरती है बिहार की."
"क्या रखा है बिहार में... कुछ नहीं है, कचरा है. बढ़िया से पढ़- लिख कर बाहर चली जाना."

इस बात में कोई शंका नहीं है कि धरती महान नहीं है. और यह बात भी सच है कि बढ़िया से पढ़ने- लिखने के लिए ज्यादातर बच्चों को बाहर जाना ही पड़ता है. 

कभी संसार के प्रथम प्रजातंत्र के संस्थापक के रूप में जाना जाने वाला बिहार जंगलराज के रूप में भी जाना गया. अनेक विद्वानों, विदुषियों, अधिकारियों, वैज्ञानिको इत्यादि की जननी बिहार भूमि मैट्रिक की परीक्षा के अजीबोगरीब टॉपर्स की जननी के रूप में भी जानी गई. कभी विश्व- स्तरीय शिक्षा का केंद्र रहे नालंदा विश्वविद्यालय की भूमि रही बिहार की धरती से "ब्रेन- ड्रेन" की अब कोई सीमा नहीं है. 

बिहार- दिवस के अवसर इन विषयों पर मंथन आवश्यक है.

सामाजिक जीवन- शैली में भी कई बदलाव आए है. हमारे सम्बोधन बदल गए है. 'ईआ' अब 'दादी' कही जाती हैं. 'बाबा' अब 'दादा' कहे जाते हैं. 'बाबूजी' 'पापाजी' हो गए हैं. 'माई' 'मम्मी' हो गई हैं. 'चाची- चाचा' अब 'अंकल- आंटी' बन चुके हैं. प्यारी- दुलारी 'फुआ' पता नहीं क्यों 'बुआ' बन गई. अच्छी बात ये है कि 'फूफा' अब भी 'फूफा' ही कहे जाते हैं. शायद सम्बोधन बदलने पर उनके रूठने का डर हो.

यह बात सच है कि सम्बोधन बदलने से रिश्ते नहीं बदलते, लेकिन बिहारीपन की झमक चली गई. हमारी आत्महीनता ने हमसे हमारे खांटी सम्बोधन छीन लिए

चौतरफा फ़ायदा देने वाली संचार- क्रांति से भी हमारा नुकसान ही हुआ. नुकसान ऐसे हुआ कि हम 'कॉपी' करने लग गए. अब 'कॉपी' करने पर 'ओरिजिनल' वाली इज्जत कैसे मिलेगी. अपनी चीजों के प्रति हीन- भावना में हम अपनी पहचान खोने लगे. अब हमारी पहचान बननी शुरू हुई अश्लील भोजपुरी गीतों से, जो इसी संचार- क्रांति की वजह से पूरी दुनिया में प्रचारित हो रही है. 

जरा सोचिये, क्या हमारी पहचान सिर्फ "लगावेलू जब लिपिस्टिक..." इत्यादि गानों से होनी चाहिए? 
या देवर- भौजाई के रिश्तो को अश्लीलता की पराकाष्टा पर ले जाते गीत हमारी लोक- संस्कृति को दर्शित करते हैं ? 
अथवा हर गीत में स्त्री को भोग- विलास के सामान की तरह दर्शाते गीत दिखाते हैं बिहार? 

मुझे नहीं नज़र आती अपनी भोजपुरी संस्कृति इन गीतों में. हमें तो बचपन से गाँव में सबको दीदी- भईया बोलना सिखाया गया. वही नजरिया भी विकसित हुआ. दोस्तों के घर जाने पर वही सम्बोधन मिले, तो फिर इन गीतों में पड़ोस की लड़की, दोस्त की बहन या हर लड़की 'माल' कैसे होती है? ये कौन सा भोजपुरिया समाज दिखाया जा रहा है भाई??? 

मुझे भोजपुरी संस्कृति नज़र आती है रघुबीर नारायण जी द्वारा रचित बटोहिया गीत में-
द्रुम बट पीपल कदंब नींब आम वृछ 
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया 

बिदेशिया, डोमकच, सामा- चकेवा, कीर्तनिया, झूमर, पंवरिया, जोगीड़ा, सोहर, कोहबर इत्यादि में है बिहार की सही झलक. "निमिया के डार मइया..." जैसे गीत करते है प्रतिनिधित्व हमारे लोक- गायन का. 

हिंदी- साहित्य पढ़े तो कुछ ऐसा वर्णन मिलेगा, "कमल के पुष्प पर ठहरी हुई ओस की बूंदो में सूर्य की किरणें झिलमिलाती हुई उतरी". इस आशय को दर्शाता हमारा एक भोजपुरी लोकगीत है, जो छठ पर्व के अवसर पर गाया जाता है-

पुरइन के पात पर उगेले सुरुज मल झांकी- झुकीं...

पुरइन मतलब कमल. इस भोजपुरी लोकगीत में भी साहित्य का वही रस विद्यमान है, जो क्लिष्ट हिंदी- साहित्य में मिलता है. यहाँ भी वही मिठास है. लोकसंस्कृति की महक लिए ऐसे कितने ही कर्णप्रिय गीत है, जो बिलकुल भी भौडे नहीं हैं. क्यों न हम उन गीतों और लोक कलाओं में छुपी अपनी असली पहचान को झमकाएं और फैलाएं. 

शुक्र की बात ये है की ठेकुए की मिठास दिन- प्रति- दिन बढ़ती जा रही है. कुछ कलाकार सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में ना फंसकर वाकई में मेहनत कर रहे हैं और हमारा दायित्व ये बनता है कि शुभ अवसरों पर कानफोड़ू बेतुके गीत बजाने के बदले हमारे पुराने लोकगीतों को बजाएं. 

जिस दिन हम ऐसा करने में सफल हो जाएंगे, बच्चों को अलग से 'नैतिक शिक्षा' पढ़ाने की जरुरत नहीं पड़ेगी. आज जो बच्चा देवर- भौजाई के संबंधो पर बने फूहड़ गाने सुनकर बड़ा होता है और भाभी से भद्दे मजाक करता है, वही बच्चा पारम्परिक गीत सुनकर ये सीखेगा की देवर तो लक्ष्मण- समान होता है. हमारे पारम्परिक गीत अपने- आप मर्यादा की सीमाएँ तय कर देंगे. 

यह पोस्ट ऐसे समय पर अपडेट कर रही हूँ, जब विश्व कोरोना की चपेट में है. हम सब से संवेदनशील व्यवहार की अपेक्षा है. 

यही संवेदनशीलता हमें अपनी वास्तविक लोक- संस्कृति को बचाने में भी दिखानी होगी, क्योंकि वही अपनी असली पहचान है. 

आइए, इस बिहार- दिवस कोरोना और इस जैसी किसी भी अन्य संक्रामक बीमारी के विरुद्ध संवेदनशील रुख अपनाएं एवं अपना बिहारीपन झमकाएं. 

बिहार- दिवस, कोरोना और एक जरुरी मंथन
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Saturday, March 14, 2020

नोटबंदी, एटीएम की पंक्ति और समानता का अधिकार

नोटबंदी, एटीएम की पंक्ति और समानता का अधिकार

बात नोटबंदी के दिनों की है. कुछ दिनों तक पड़े नोटों के अकाल के बाद अवतरित हुए गुलाबी नोट का मूल्य उसके वास्तविक मूल्य से बढ़कर प्रतीत हो रहा था. 

जिसप्रकार अकाल पड़ने पर लोग "काले मेघा, काले मेघा पानी तो बरसाओ ..." गीत गाते थे, उसी प्रकार एटीएम की पंक्तियों में लगे लोगों को देख कर मुझे ऐसा लगता था, मानो वो लोग गा रहे हों, "आउट ऑफ सर्विस की तलवार नहीं, गुलाबी नोटों के बाण चलाओ ..." पंक्ति में खड़े हर व्यक्ति के मन का न मिटने वाला भय यही होता था कि कहीं उसकी बारी आते आते नोट ख़त्म ना हो जाएं.

एक तो भगवान के मंदिर में दर्शन को पंक्ति में खड़ा व्यक्ति; रेलवे काउंटर पर टिकट लेने को खड़ा व्यक्ति; और एटीएम की पंक्ति में खड़ा व्यक्ति दुनिया का व्यस्ततम मनुष्य होता है. ये बात नहीं है कि वो किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष होता है, अथवा राष्ट्रीय सलाहकार होता है अथवा गूगल का सीईओ होता है. उसके किसी पंक्ति में देर तक खड़ा रह जाने से न तो सेंसेक्स पर कोई असर पड़ना होता है, न ही जलवायु- परिवर्तन या भूकंप जैसी कोई घटना घटित होने की आशंका होती है. फिर भी वह जताता ऐसे है, जैसे अगर उसको जल्द- से- जल्द पिछली पंक्ति से पदोन्नत करके आगे नहीं भेजा गया तो ये सारी घटनाएँ एकसाथ घटित हो जाएंगी. 

वैसे तो हर व्यक्ति ईश्वर की अनन्य कृति होने के कारण महत्वपूर्ण होता है. उसके ऊपर घर- परिवार और अन्य सम्बंधित लोगों, मित्रों इत्यादि की जिम्मेदारी होती है. किसी को भी पूर्णतः निकम्मा नहीं कहा जा सकता है, लेकिन यहाँ बात एक व्यक्ति के समय का समाज के एक बड़े वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव की हो रही है. हां, तो स्वयं को व्यस्त बताने वाले इन व्यक्तियों में कुछ अपवादों को छोड़ कर मुख्यतः ये वही लोग होते हैं जो कभी बिजली के खंभे पर चढ़े मरम्मत करते मिस्त्री को देखने रुक जाते हैं, कभी भौंकते कुत्तों की लड़ाई का कारण समझने रुक जाते हैं; तो कभी प्रशासन द्वारा तोड़े गए अवैध ईमारत की टूटी हुई ईंटे गिनने के लिए घंटों रुक जाते हैं. 

अगर इन सारे कार्यों के लिए समय निकल आता है, तो पंक्ति में खड़े होते ही कौन सी आफत आ जाती है. यह तो आपका व्यक्तिगत कार्य है. 

ऐसे ही एक व्यस्त मनुष्य से मेरा सामना हुआ नोटबंदी के दिनों में. ठण्ड के मौसम में सुबह के सात बजे नींद को तोड़कर और घने कुहासे को चीरकर जब मैं SBI मुख्य शाखा के एटीएम पहुंची तो वहाँ पहले से ही एक किलोमीटर लंबी लाइन लगी हुई थी. चूंकि मैंने कभी भी टूटी हुई अवैध ईमारत की ईंटे गिनने में अपना समय नहीं गवाया, मेरे पास एटीएम की पंक्ति में खड़े होने का पर्याप्त समय होता है. अतएव एक किलोमीटर लंबी पंक्ति को दो किलोमीटर लंबा बनाने की की दिशा में कदम बढ़ाते हुए मैं सबसे पीछे जाकर खड़ी हो गई. मोदीजी की नीतियों की प्रशंसा और आलोचना की गर्मागर्म बहस के बीच भोर की ठंडक का एक अलग ही मजा था.

तभी गार्ड समेत कुछ अन्य संजीदा लोगों ने बताया कि, "आप यहाँ क्यों खड़ी हैं, महिलाओं की लाइन दूसरी है". घने कुहासे में मुझे 10- 12 लड़कियों की छोटी सी पंक्ति नज़र नहीं आई थी. 

खैर, नोटबंदी के दिनों की एक खास बात यह भी थी कि इन दिनों आमतौर पर निष्क्रिय से दिखने वाले 'एटीएम के गार्ड्स' काफी सक्रिय नज़र आ रहे थे. 

SBI मुख्य शाखा के बाहर चार एटीएम थे, जिनमे से सिर्फ एक पर गुलाबी लक्ष्मीजी की कृपा थी; अर्थात सिर्फ उसी में कैश था. इसप्रकार उस एटीएम रूपी लक्ष्मी की रखवाली के लिए तीन अतिरिक्त गार्ड मुफ्त में उपलब्ध हो गए थे. 

गुलाबी लक्ष्मी-माता के अति- सक्रिय रखवालों ने न्याय के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए जो नियम बनाया था, वो ये था कि पहले पुरुषों की पंक्ति से चार व्यक्ति अंदर जाकर पैसे निकालेंगे, फिर महिलाओं की पंक्ति से एक को अवसर मिलेगा और फिर पुरुषों की पंक्ति से चार, फिर एक महिला... 

इसप्रकार अपनी पंक्ति में दसवें स्थान की वास्तविक स्थिति के बावजूद मेरा क्रम पचासवां था. 

आमतौर पर जनसंख्या- नियंत्रण के विज्ञापनों में एक लालच दिया जाता है कि यदि आपकी आबादी कम रहेगी तो संसाधनों का ज्यादा उपयोग करने को मिलेगा. यहाँ तो उल्टी बात हो गई. एक किलोमीटर लंबी पुरुषों की पंक्ति की बनिस्पत 10- 15 लड़कियों की कम आबादी वाली पंक्ति को प्रतीक्षा तो उतने ही समय करनी पड़ी. 

तभी मेरे दिमाग में ये विचार आया कि यदि इसी प्रकार की व्यवस्था पूँजीवाद के खिलाफ की जाती तो कार्ल मार्क्स खुश ही हो जाते. यानि, यदि मुट्ठीभर पूँजीपतियों बनाम बुर्जुआ वर्ग द्वारा संसाधनों के उपयोग के समय यही व्यवस्था लागू होती की पहले चार बुर्जुआ उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करेंगे, फिर एक पूँजीपति तो इतिहास कुछ और होता. 

बहरहाल, जब मुझसे पहले 49 लोग पैसे निकाल चुके और गार्ड ने मुझे ईशारा कर दिया कि अब मैं अंदर जाऊँ; उसी वक्त एक युवक जो मेरे बाद तीसरे नंबर पर था, बिफर पड़ा. उसकी शिकायत ये थी कि भारतीय संविधान भी समानता का अधिकार देता है तो फिर यहाँ महिलाओं को विशेषाधिकार क्यों मिल रहा है. वैसे तो चार पुरुषों के बाद एक महिला को पैसे निकालने का अवसर देने में उसको कौन सा विशेषाधिकार नज़र आ रहा था; ये बात समझ नहीं आई. दूसरी बात ये कि अगर उस युवक को समानता के अधिकार का ज्ञान था तो फिर उसे अनुच्छेद 15(3) के बारे में क्यों नहीं पता था. 

अनुच्छेद 15(1) में लिंग के आधार पर भेदभाव को वर्जित किया गया है, लेकिन अनुच्छेद 15(3) के अनुसार राज्य को इस बात की अनुमति है कि वह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था कर सकता है. 

संविधान- समिति की बहस में राजकुमारी अमृत कौर ने अनुच्छेद 15(3) की वकालत की थी. उन्होंने महिलाओं की अतिरिक्त जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए कुछ अतिरिक्त अधिकारों की माँग की थी, जिसे सम्मानपूर्वक स्वीकार किया गया था और अनुच्छेद 15(3) को मूल अधिकारों में शामिल किया गया था. 

किसी भी कानून का आधा- अधूरा ज्ञान रखने वाले और बिना उसके पीछे का कारण जाने बहस करने वालो से मेरा सामना कई बार हुआ है. शायद "अधजल गगरी छलकत जाए" इसी को कहते हैं. ना तो एटीएम गार्ड्स राज्य की श्रेणी में आते हैं, ना ही उनके द्वारा की गई व्यवस्था अनुच्छेद 15(3) के दायरे में आती है. यह एक सामान्य व्यावहारिक व्यवस्था थी, जिसके विरोध में संविधान- प्रद्दत अधिकारों की बात करना मुझे अजीब लगा.

मुझे कभी भी एटीएम की पंक्ति में कोई विशेषाधिकार पाने की प्रत्याशा नहीं रहती है, लेकिन जिस प्रकार उस युवक ने समानता के अधिकार की आड़ में अपनी हड़बड़ाहट जाहिर की उस से मन कड़वा हुआ. आख़िरकार मैंने भी अपनी पंक्ति में दसवें स्थान की वास्तविक स्थिति के बावजूद पचासवें स्थान तक प्रतीक्षा की थी. खैर, उस कड़वाहट का वर्णन यहाँ करके मैं इस व्यंग्यात्मक पोस्ट का मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहती. 

पर सबसे दुःखद घटना ये हुई कि इतनी मशक्कत और समानता के अधिकार जैसे गंभीर मुद्दे पर बहस के बाद हाथ आया पहला गुलाबी नोट आधे घंटे भी मेरे पास ना टिक पाया और मकान- मालकिन के 'ब्लैक- होल सदृश बटुए' के सुपुर्द हो गया. 😢

पता नहीं कार्ल मार्क्स इस घटना पर क्या प्रतिक्रिया देते... 

आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट सेक्शन में अवश्य बताएँ.
 
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Friday, March 6, 2020

International Women's Day 2020 and my take on Women Empowerment

International Women's Day 2020 and my take on Women Empowerment


International Women's Day is around the corner. Obviously, everyone would be wishing the day to us. women would be applauded at every forum. Sanskrit slokes like, "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:" would be enchanted by everyone. Newspapers would be full of women centric articles and columns celebrating our existence. Social media would go pink with hashtags like #respectwomen or #letherlive or just #her. Any other hashtag with more creativity or with more rebellion message may also trend. I have to admit that I am not that good with hashtags, so I should better leave it to your creativity.

'Women Empowerment' is the most discussed topic during these celebrations. People come up with various ideas of empowerment. I find some of these ideas to be innovative and some of them to be too conventional and impracticable. With due respect to all these ideas, I would like to share some real stories of women around me, which are true instances of empowerment for me.

Being a law student and having studied in three different universities, I have come across thousands of people. To my delight, many of them are strong and empowered women.

I have come across a woman, who turned up for LL.B semester exam just a day after delivering a baby; A CAESAREAN BABY. She wrote her answer- sheet lying leftwards in an ambulance outside the examination- hall. Her sheer audacity to study made her conquer the most painful phase of her life. She always wanted to study, but her parents got her married. She got herself enrolled into LL.B course, but got pregnant even before she could clear her first semester. She was suspicious that dropping the exams might be a full- stop of her career. She too was surrounded by people who; under the pretext of taking care, asked her not to risk her life And she refused to be taken care that way.

That refusal made her unstoppable. Currently, she is working as Assistant Public Prosecutor. Although I cannot disclose her name since I have not taken her permission; I feel, 'STRONG' and 'EMPOWERED' are small words to define her. She made her way through all the hindrances and never gave up hope. Hats off to you lady. Your strength is an inspiration for those who keep on complaining about hostile environment and do not make a move.

I know a lady, who was educated, independent and opinionated. But, she had to face societal- judgments since she was divorced. I always found her firm, determined and satisfied with the decisions she had made in her life. A fearless unapologetic lady- a strong woman indeed.

Then, I came across a woman who is merely literate, financially dependent, belonging to that class of society; where patriarchy is at its zenith. She has to live either under the commands of her husband or under the commands of her own son. 

I find her situation to be too pathetic to survive. But, she has not given up hopes. She too, is making her way through these hurdles and hindrances and is securing her daughter's future. Her tolerance is her empowering tool.

There are many more stories, but these are the first three stories which came in my mind the moment I thought of writing this post. While writing this post, several other incidents are pinching me. I would write about them in some other post.

Since this post is about empowered and strong women; And all have their own definition of 'STRONG WOMEN', I should be specific here. For me, being strong does not mean being anti-men. It also does not mean being female- chauvinist. Well, if not all these negative connotations; then what does 'Strong Women' mean to me ? 

'Strong Women' are those who themselves define their lives. Instead of attempting to shape themselves in accordance with the set norms of society, they make their own path. The ladies I have mentioned in this post are those who have made their own path. Lets celebrate their victory.

Although I feel our existence on earth itself is worth celebrating everyday; Let's make it more special this women's day.Let's not see ourselves with pity. Let's respect ourselves. Let's refuse compliments like, "Tu to maal lg rhi hai". Mind you, we are not a commodity. Let's be more vocal about our emotions. Let's ignore societal judgments. Path is indeed longer and harder, but let's make our way through it.

Happy International Women's Day 2020 to us, the marvellous ladies.

Note:- This post was supposed to be published on Wednesday and I am publishing it on Friday. I generally do not take more than two hours to write, type, edit and upload a post. Making an image depicting main thought of the post is also included in that time. But this post has taken the longest time ever. I am still not sure if I am clear in making my point. I read this post twice, once I found it to be vague; then I found it to be incomplete.

It is incomplete indeed. But then featuring every women in my life is not possible in one post. Vague, because there are too many things to discuss and I am falling short of words. This is the fate of an emotionally- driven post. I am also unable to draw an image which could define a women, so I have just used the colours of rainbow and have left the rest up to your imagination.

Tell me your story of empowerment in comment- section below and also send me an image which could define a woman. Don't forget to share the post with strong ladies in your life. Do Subscribe the Blog.

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Sunday, March 1, 2020

राम ज्यादा आम खाता है क्या ?


राम ज्यादा आम खाता है क्या ?


राम ज्यादा आम खाता है क्या दीदी ?- यह मेरी अबतक की ज़िंदगी में पूछा गया सबसे तार्किक प्रश्न था. सवाल पूछा था उस छोटी सी बच्ची ने, जो वर्णमाला का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मात्राएँ सीख रही थी. 'आ' की मात्रा सिखाते हुए उसे उसकी विद्यालय की शिक्षिका और टयूशन शिक्षिका, दोनों ने एक ही गृहकार्य दिए था-

राम आम खाता है. 
राम आम खाता है. 
राम आम..............

उस बच्ची की उत्सुकता तो शायद यही जान ने तक सीमित थी कि आम खाने का इल्ज़ाम सभी लोग राम पर क्यों लगा रहे हैं? क्या वाकई राम ज्यादा आम खाता है? लेकिन उसका यह प्रश्न मुझे सालता रहा. वैसे तो 'आ' की मात्रा सिखाने का यह सबसे आसान और प्रचलित तरीका है, क्योंकि राम की तुकबंदी बैठती है आम के साथ; परन्तु इस प्रश्न का कोई तार्किक उत्तर न ढूंढ़ पाने पर मुझे लगा कि हम 'राधा' को भी तो 'आम' खिला ही सकते हैं.

जरा सोचिये अगर मनुष्य को सिर्फ अपने नाम की तुकबंदी में फल या अन्य खाद्य- सामग्री खाने की इजाज़त हो तो क्या होगा?

शालू सिर्फ कचालू खा पाएगी. 

गुड़िया सिर्फ पुड़िया खा पाएगी. हालांकि उस पुड़िया में कोई भी खाद्य- सामग्री भरी जा सकेगी, लेकिन एक पुड़िया भात अथवा एक पुड़िया डोसा से क्या होगा. 

ठेकुआ खाने की अनुमति सिर्फ फेंकुआ को होगी तो बाकी बिहारियों का क्या होगा.

दुर्गा को मुर्गा खिलाएंगे ???

जो व्यक्ति आडू खाएगा जरा उसके नाम की कल्पना कीजिये.

हलुआ खानेवाले को अपना नाम कलुआ या गलुआ रखना पड़ेगा.

खाजा खाने का हक सिर्फ राजा का होगा.

पूजा पूरी ज़िंदगी भूंजा खाती रहेगी.

चने को फन्ने खाँ खा जाएंगे और घोड़ा भूखा रहेगा.

पालक, पपीता, बथुआ, सोया, मेथी, गाजर, अमरुद इत्यादि इत्यादि खानेवालों के नामो की कल्पना कीजिये.


यदि यह नियम लागू हो गया तो असंख्य व्यक्ति सिर्फ ऑक्सीजन पीकर गुजारा करेंगे क्योंकि पानी पीने के लिए नानी बनना पड़ेगा. 

यह व्यवस्था लागू होने पर टेलीविज़न के "टॉक- शोज" से एक प्रश्न अपने- आप कम हो जाएगा. आमतौर पर गणमान्य व्यक्तियों को ऐसे कार्यक्रमों में बुलाकर उनसे कुछ सवाल पूछे जाते हैं. कल्पना कीजिये कि कपिल शर्मा के शो पर क्या दृश्य होगा,- "अरे मिस्टर थापर, आपका प्रिय भोजन तो झापड़ होगा?"

नाम  के साथ लयबद्ध भोजन खिलाने के बारे में जितना सोचती हूँ, उतने ही ज्यादा हास्यास्पद ख्याल दिमाग में आते हैं. अगर इस छोटी बच्ची जैसे तार्किक दिमागधारी बच्चे कल को सत्ता में आ गए और यह कह दिया कि, "कल आपने मात्रा सिखाने में राम को आम खिलाया था, अब आप भी तुकबद्ध भोजन ग्रहण करो" तब क्या होगा?

उसी तरह नाम की तुकबंदी में पढाई भी करने का नियम हो तो क्या मज़ा आ जाए. कुछ अपवादों को छोड़कर आमतौर पर यह माना जाता है कि डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर के बच्चे इंजीनियर और वकील के बच्चे वकील बनते हैं. इस नियम के तहत सिर्फ शकील बनेगा वकील. डॉक्टर बनने का हक़ उस व्यक्ति को होगा, जिसका नाम होगा प्रॉक्टर...

एक मिनट, यह कैसे संभव है?

हमारे देश में प्रत्येक वर्ष लाखों इंजीनियर/ अभियंता बनते हैं. मुझे अभी इंजीनियर/ अभियंता की तुकबंदी में कोई नाम नहीं सूझ रहा. आप सुझाएँ. ऐसे में इंजीनियरिंग की पढाई से ज्यादा कठिन परीक्षा माँ- बाप की हो जाएगी नामकरण संस्कार के समय. यदि माता- पिता ने यह कठिन कार्य सफलतापूर्वक कर भी लिया, लेकिन उनका इंजीनियर बच्चा  पैशन फॉलो करने के चक्कर (#followingthepassion) में कॉमेडियन बनने चला गया तो मेहनत व्यर्थ जाएगी.


देश की अदालतें अभी लंबित मामलों के बोझ से दबी हैं. तब स्थिति यह हो जाएगी कि अदालतें नाम- परिवर्तन करने वाले शपथ- पत्रों के बोझ से दबेंगी. 

इसका एक समाधान जो मुझे समझ आ रहा है वो ये है कि लोग अपने लाडले- लाड़लियों का नामकरण करने के बदले उन्हें कोड से चिन्हित करें और जब व्यवसाय अथवा पैशन निर्धारित हो जाए, तब नामकरण करें; क्योंकि हर पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाएं, यह आवश्यक नहीं है. 

जहाँ तक आधार- कार्ड का प्रश्न है, तो जिस प्रकार पांच वर्ष और पंद्रह वर्ष का होने पर फिंगर- प्रिंट अपडेट कराने  नियम है, उसी प्रकार नाम भी अपडेट हो जाएगा. 

एक और बात मन में कौंध रही कि अगर नाम के हिसाब से वस्त्र पहनने हों तो क्या हो? हर नारी साड़ी पहने, खोटीराम धोती पहने. बाकी वस्त्र पहनने के शौक़ीन लोग उस हिसाब से अपना नाम रखें.

इस अवलोकन से बस एक बात सामने आ रही है कि हमें बच्चों को मात्रा का ज्ञान देते समय सिर्फ राम को आम खिलाना बंद करना पड़ेगा. राधा, सना, ममता इत्यादि लोग भी आम खा सकते है. 
अथवा ये कैसा रहेगा-
आधार आवश्यक है. 
आधार आम आवश्यकता है. 
आधार ही आधार है.   


नोट:- कमेंट सेक्शन में बताए आपको यह पोस्ट कैसा लगा. क्या कभी किसी बच्चे ने आपसे भी ऐसा ही कठिन सवाल पूछा है? यदि हाँ तो वह सवाल बताएँ एवं Blog को subscribe करें. 

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कर्मभूमि

कर्मभूमि  (कथा सम्राट प्रेमचंद रचित उपन्यास "कर्मभूमि" का नाट्य- रूपांतरण )   नोट:- लेखिका का  कथा सम्राट  प्रेमचंद से संबंध --दू...