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Thursday, September 29, 2022

 तटिनी के तट पर मन की बात 


 

    आज नदी से मुलाकात हुई. मैंने देखते ही हाथ जोड़े- प्रणाम गंगा मईया. गंगा मईया ने हँसकर आशीर्वाद दिया- विकसित होती रहो बिटिया. मैं मुस्कुराई. "खुश रहो" के मुकाबले "विकसित होती रहो" ज्यादा अच्छा लगा. मैंने कहा- मईया, समस्त मानव सभ्यताएँ आपके और आपकी बहनों के तट पर ही विकसित होती रही हैं. मैं भी अपनी गति से बढ़ रही हूँ.  

    तब नदी ने कहा- वह तो शुरुआती दिनों की बात थी. तुम पूरी तरह मुझपर आश्रित नहीं हो. 

    नदी के शब्दों में उलाहना का भाव था. मैं समझ गई कि हजारों वर्षों की अपनी लंबी जीवन- यात्रा में नदी अब उपेक्षित महसूस करती है. 

    मैंने मनौती करते हुए कहा- मईया, भौतिक रूप से भले ही मैं आपपर आश्रित ना होऊं, भले ही प्रतिदिन स्नान करने आपके तट पर ना आऊं, घड़ों में पीने का पानी भरकर ना ले जाऊँ; भावनात्मक आश्रय सदैव आपके पास ही मिला है. आपके पास आकर ही सुकून मिलता है, ठहरी हुई जिंदगी में बहाव आता है. 

    नदी ने मुँह ऐंठा- भला वो कैसे? 

मैंने अब अपने शब्दों को थोड़ा और कोमल किया- मईया, मेरे अबतक के जीवन की कहानी तो सुनो. मेरे गांव के पास से तो आप बहती नहीं. नानी घर जाते हुए रेलगाड़ी की खिड़की से आपको देखा था. बड़ा कौतुहल हुआ था. आपकी विशालता से नहीं, बल्कि आपके संयम और धैर्य से. हम मनुष्यों को कोई लाँघ जाए तो बड़ी लड़ाइयाँ हो जाती हैं. आप इतने बड़े जनसमूह को स्वयं को लांघने की अनुमति दे देती हैं. पुल से स्वयं को बांधने देती हैं; जबकि आप ज्यादा ताकतवर हैं हम तुच्छ मनुष्यों के आगे. इतना धैर्य कहाँ से लाती हैं आप? चाहकर भी नहीं सीख पाई मैं इतनी सहिष्णुता. फिर भी जीवन में जो लेशमात्र धैर्य है, आपसे ही सीखा है. पर स्वयं को लाँघ जाने वाले को क्षमा कर सकूँ, ये गुण ना सीख पाई अबतक. 

    नदी ने मुझे गौर से देखा- तो इसीलिए तुम्हे मुझसे लगाव है. 

    मैं गड़बड़ा गई- और भी बहुत सी घटनाएँ हैं माँ. 

    नदी ने ठहरकर मुझे सुनना शुरू किया. 

    मैंने आगे की कहानी बताई- मेरे गांव में कुछ औरतें थीं; बिलकुल लाल पान की बेगम सी. किसी न किसी बात को लेकर उनमे अनबन हुई ही रहती थी. लेकिन, जैसे ही गंगा स्नान पर जाने की बात शुरू होती थी, सब- की- सब संगठित हो उठती थीं. एकता का वैसा नमूना फिर कभी कहीं और नहीं देखा. रिविलगंज घाट पर गंगा- स्नान करने जाने के लिए सभी औरतें एक- दूसरे की हर- संभव सहायता करतीं. कोई पेटी में रखी नई साड़ी निकाल दूसरी को दे देती, कोई अपनी चप्पल दूसरी को दे देती. सत्तुआ- अचार और गुड़ की भेली को आपस में बाँटकर साम्यवाद का अनूठा उदाहरण पेश करती ये औरतें स्नान के बाद खरीददारी में भी एक- दूसरे की मदद करती थीं और खून- पसीने की कमाई से संजोए पैसों से सबके लिए टिकुली- सिंदूर और जलेबी- बताशे खरीद कर लाती थीं. अभावों भरे जीवन को धता बताकर खुशियों के चंद पल चुरा लाती थीं. यह सब सिर्फ गंगा- मईया के नाम पर संभव हो पाता था.

    अब जब जीवन में उतने अभाव नहीं रहे, पर्व- त्योहार, जीवन- मृत्यु के अवसरों पर आपके तट पर एकत्रित होते आगे की पीढ़ियों को भी देखा है मैंने. 

    नदी कुछ पल खामोश रही. फिर कहा- इस पूरे प्रसंग में प्रत्यक्ष रूप से तुम तो कहीं नहीं हो, फिर मुझसे लगाव की वजह. 

    मैं नहीं होकर भी हूँ माँ. मैंने जल्दी से कहा. मैं हूँ इस प्रसंग में. इस एकता की साक्षी हूँ मैं. मेरी सारी संवेदनाओं का केंद्र आप ही हैं. धैर्य, सहिष्णुता और एकता तो सीखा ही है आपसे; कल्पनाशीलता भी आपकी ही देन है. अपनी बाल- मंडली की चर्चाओं में ये ज्ञान मिला था कि गंगा मईया संसार की सबसे बड़की नदी मईया हैं, जो शंकर भगवान की जटा से निकलकर पूरी धरती पर फैली हैं. बिना आपको देखे विश्व- मानचित्र पर आपकी उपस्थिति की कल्पना करने के साथ हीं मेरे अंदर की लेखिका ने जन्म लिया था. 

    आपके सबसे बड़ी नदी होने का तथ्य मेरे दिलो- दिमाग पर कुछ इस तरह बैठा था कि ऊपर की कक्षाओं में भूगोल विषय में संसार की अन्य नदियों का जिक्र अविश्वनीय लगता था. मेरे लिए नदी का पर्याय गंगा मईया थी. आज भी कल्पना की दुनिया यथार्थ की दुनिया से ज्यादा सुंदर लगती है. आपके बिना मेरी कलम नहीं चलती. 

    इसके अलावा आप मेरे घावों पर मलहम भी लगाती हैं और बिछुड़े हुओं से मिलाती भी हैं. महादेवी वर्मा की प्रिय हिरणी सोना मुझे भी उतनी ही प्रिय है. वो आपकी ही लहरों में विलीन हुई थी. इसीलिए जब भी सोना से मिलना होता है, आपके तट आती हूँ और सोना की झलक मिल जाती है. 

    झलक मिल जाती है उन विलुप्त हो चुकी सभ्यताओं की, जिन्हे इतिहास की किताबों में पढ़ा है. 

    अबकी बार नदी ने जल्दी से मेरी बात काटी- अगर तुम ये कहना चाहती हो कि उन सभ्यताओं के विनाश का कारण मैं हूँ, तो याद करो उनके विकास का कारण भी मैं ही थी. अगर जीवन मैंने दिया था, तो लेने का हक़ तो बनता है. मुझे लाँघो, मुझे बांधो, पर अपनी सीमा रेखा ना लाँघो; वरना मैं बनूँगी विनाश का कारण. 

    नदी के तर्कों पर मुझे स्वीकृति देनी पड़ी- "हाँ माँ, हक़ तो आपका ही बनता है." मन में विचार कौंधा- अस्पताल के बिस्तर पर बीमारी की वजह से मरने से कहीं ज्यादा सुंदर मृत्यु होती होगी प्रकृति माता की इस संतान की गोद में होनेवाली मृत्यु... पता नहीं मृत्यु कैसी होती है. 

    नदी ने मेरे मन को पढ़ लिया. बोली- इतना चिंतनशील होना ठीक नहीं. अल्हड़ बनो, गतिमान बनो. 

    मैं मुस्कुराई. कपड़ो से रेत झाड़ा और चलने को तैयार हुई. 

    नदी भी खिलखिलाई, उफनाई और तेज गति से चल पड़ी. 


 

 


Wednesday, September 14, 2022

बारिश 

रिमझिम बरसती ये बूँदे,
धुँधली यादों को नहलाती हैं. 
बीते लम्हों की डोर से,
मन को बाँध जाती हैं.
 
मन ये चंचल पीछे भागे,
उन पलों की खोज में.
जिन्हे कभी हमने था जिया, 
जीवन- धारा की मौज में.
 
ये बरसते आँसू हैं,
जो मातमपुर्सी को निकले. 
या बरस रही नेमत हैं ये,
जो प्रकृति- माता से हैं मिले. 
 
हरदम ये बूँदे मुझको,
स्तब्ध- सी कर जाती हैं. 
बीते लम्हों की डोर से, 
मन को बाँध जाती हैं.

 


Saturday, September 10, 2022

नैसर्गिक मिलन 


    धूल- धूसरित सुस्त पड़े पेड़ को जोर- जोर से हिलाती हुई हवा आई. हवा भागी- भागी ये संदेश लेकर आई थी कि उनकी सखी वर्षा रानी बस आने ही वाली है. 

    अलसाए पेड़ ने अचानक लगे धक्के से चिढ़ते हुए कहा,- "ऐ बावली हवा ! तू अपनी ख़ुशी दबा क्यूँ नहीं पाती. ये संदेश तू हल्की सरसराहट के साथ भी तो दे सकती थी."

    हवा ने पेड़ को और जोर का धक्का लगाया और कहा- "सरसराहट के साथ तो प्रियतम के आगमन की सूचना दूँगी. सखी वर्षा का आगमन तो उत्सव है उत्सव. 

    पेड़ अपने मोटे तने और पतली टहनियों का तारतम्य चंचल बावली हवा के साथ बिठाने की कोशिश कर ही रहा था कि वर्षा रानी आ पहुँची.

    अब पेड़ पर दोहरी मार पड़ी. हवा तो पहले से ही पेड़ को जोर- जोर से धक्के लगा रही थी; उसकी सखी वर्षा भी अब पेड़ को भिगोने लगी.  हवा का व्यवहार बिलकुल उन निश्छल बच्चो सा था, जो अपनी सखियों/ सखाओं के आगमन पर इतने खुश हो जाते हैं कि काबू में नहीं आते. 

    वर्षा रानी भी अपना कोष खाली करने के इरादे से आई थी. उसने झमाझम अपने अलसाये दोस्त को भिगो डाला. धूल- धूसरित सुस्त पेड़ अब नहा- धुलाकर और हरा, और जवान, और चुस्त हो उठा. 

    हवा भी भींग गई. भींगी हुई हवा की खुशबू भी बदल गई. वर्षा रानी की मादक बूँदो ने चंचला- अबोध- बालिका सी हवा को अचानक युवती बना डाला. अब वो शायद शर्माने लगी, और शांत हो गई. 

    पेड़ अब हौले से मुस्काया और युवती हवा को गले लगा लिया. अब दोनों ने एक- दूसरे को साध लिया. वर्षा रानी भी अब धीमे- धीमे से बरसने लगी. हवा मंद गति से बहने लगी और पेड़ मंद गति से डोलने लगा. 

    यह उनके मिलन की सरसराहट थी.

भोजपुरी संस्कृति और गारी  YouTube पर TVF का एक नया शो आया है, "VERY पारिवारिक".  इस शो का गाना "तनी सून ल समधी साले तब जइहा त...