The Restless Soul
Comedy, fun, sarcasm and motivation related Blog based on personal- experiences with sole purpose of entertainment
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Friday, March 28, 2025
Friday, February 28, 2025
"छुक- छुक चले जीवन की रेल"
Monday, January 20, 2025
तृतीय प्रकृति: अस्तित्व से अस्मिता तक
Scene 1
(5 Transgenders come on the stage with a girl. They are clapping and singing.)
“अकाल मृत्यु मरता काम करता जो चांडाल का,
काल भी उसका क्या बिगाड़े भक्त जो महाकाल का”
(Then enters a girl named Shubhangi who looks upset)
मंगला (1st TG)- अरे शुभांगी बिटिया, तू उदास क्यों है? अरे तेरी मां और चारों मौसियां तेरी खुशी के लिए ही तो जीती है.
शुभांगी (the Girl)- अरे मां, स्कूल में सब मुझे चिढ़ाने हैं. कहते हैं तेरी मां न मर्द है न औरत. धरती पर मर्द और औरत ही रहते आए है.
गौरा (2nd TG)- अरे कौन कहता है ऐसा. सुन बिटिया, जो ऐसा कहता है उसको हमारा इतिहास पता ही नहीं है. औरत और मर्द के अलावा तृतीय प्रकृति यानि हम भी तो रहते आए है हमेशा से. अरे, हमारे अस्तित्व पर तो स्वयं भगवान राम ने मुहर लगाई थी.
शुभांगी (the Girl)- अच्छा, वो कैसे मां?
लक्ष्मी (3rd TG)- सुन बिटिया, त्रेता युग की बात है, भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वनवास को चले.
Scene 2
(Ram, Lakshman and Sita appear on the stage wearing Gerua. A few people come behind crying and making noise.)
सबलोग एक साथ- प्रभु, आप अयोध्या छोड़कर ना जाएं.
राम- मैं पिता के वचनों से बंधा हुआ हूँ. चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके मैं लौट आऊंगा. सभी नर और नारी घर चले जाएं.
(Ram, Lakshman and Sita go towards another side of the stage and come back. Meanwhile some people leave the stage but two of them are still there.)
1st Person- राजा राम ने सभी नर और नारियों को घर जाने का आदेश दिया है.
2nd person- किन्तु हम न तो नर हैं और न हीं नारी. तो यहीं रुककर प्रभु के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं.
(Then Ram, Lakshman and Sita come back)
लक्ष्मण- चौदह वर्षों बाद हम अयोध्या लौटे हैं.
सीता- अरे प्रभु, ये देखिए, ये किन्नर आपकी प्रतीक्षा में चौदह वर्षों से यहीं खड़े हैं.
राम- आप सबकी भक्ति से मैं भावविह्वल हूँ. मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि आप एक शुभंकर जीव बनेंगे और आप जिसको भी आशीर्वाद देंगे वो फलित होगा.
(All the characters from Ramayan leave the stage. Present characters come centre stage.)
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शुभांगी (the Girl)- अरे वाह मौसी. तुम्हारे अस्तित्व पर तो वाकई भगवान राम ने मुहर लगाई, पर मेरा क्या… सब कहते हैं मैं मां के पेट से नहीं जन्मी.
मंगला (1st TG)- अरे बेटी, तू मेरे पेट से नहीं, मेरे दिल से जन्मी है रे. मेरे भी सीने में मां का दिल है.
त्रिलोकी (4th TG)- बेटी तुझे पैदा करने वाली मां जब मर गई तो तेरी इस मां ने तुझे गोद ले लिया. ऊपरवाला जानता है बेटी, पूरी ममता से पाला है तुझे तेरी इस मां ने.
शुभांगी (the Girl)- मेरी प्यारी मां.
अच्छा मौसी, और कहानी सुनाओ न.
लक्ष्मी (3rd TG)- सुन बिटिया, द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब पांडवों की हार लगभग तय हो चुकी थी.ऐसे समय में राजपुत्र के नरबलि देने की बात आई. इसी समय अर्जुन एवं उलूपी पुत्र इरावन अपनी बलि देने के लिए सामने आया लेकिन उसने एक शर्त रखी कि वो अविवाहित नहीं मरना चाहता.
Scene 3
(Krishna and Eravan enter the stage)
इरावन- मैं इरावन, अपने कुल की रक्षा के लिए मैं मां काली के सामने अपनी बलि देने को तैयार हूँ, किन्तु मैं अविवाहित नहीं मरूंगा.
कृष्ण- तथास्तु. तुम्हारा विवाह अवश्य होगा.
कृष्ण (थोड़ा आगे बढ़कर)- अब एक दिन की सुहागन और फिर विधवा बनने के लिए तो कोई कन्या तैयार नहीं होगी. अतः, मैं स्वयं स्त्री रूप धारण करुंगा और इरावन से विवाह करूंगा. उसकी मृत्यु के उपरांत मैं विलाप भी करूंगा. कृष्ण के मोहिनी बनने का समय आ गया है.
(Krishna leaves the stage and enters Mohini. Mohini is holding a mysterious smile and is dancing. She goes to Eravan.)
मोहिनी- मैं आपसे विवाह करने को तैयार हूँ.
(Mohini and Eravan dance together and while dancing they go towards the statue of Goddess Kali. Eravan sacrifices himself and Mohini mourns.)
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लक्ष्मी (3rd TG)- तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में इरावन का मंदिर आज भी बना हुआ है.
(The Characters from Mahabharat leave the stage. Present characters come centre stage.)
शुभांगी (the Girl)- बड़ी दिलचस्प कहानी है मौसी. लेकिन इतने समृद्ध इतिहास के बावजूद सबलोग मजाक क्यों उड़ाते हैं ?
नैना (5th TG)- अरे वो तो अंग्रेजों के राज में हमारी स्थिति खराब हुई. उन्होंने the Criminal Tribes Act, 1871 बनाया जिसके तहत सारे हिजड़ा लोगों को अपराधी मान लिया गया था.
गौरा (2nd TG)- दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी हमारी स्थिति खराब ही रही जबतक NALSA VS. UOI के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अस्तित्व पर मुहर नहीं लगा दी. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हमें third gender माना और socially and educationally backward classes of citizens का दर्जा दिया. लेकिन ये सरकार अबतक हमको सही तरीके से reservation नहीं दी है.
मंगला (1st TG)- ऊपर से ये अमरीका वाला कह रहा है कि धरती पर सिर्फ आदमी और औरत ही रहते हैं. हुंह... बौड़म कहीं का.
त्रिलोकी (4th TG)- अब तो श्री गौरी सावंत, लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, अभिना अहर, मंजमा जोगती, शबनम मौसी से लेकर त्रिनेत्र हालदार तक कितने ही हम जैसे लोग हैं जो हमें प्रेरित करते हैं.
सभी TG एक साथ- तो ये है हमारी यात्रा, अस्तित्व से अस्मिता तक.
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Note:- Boss ordered me to get our students perform a skit on the theme Transgender. First, I was hesitant to write anything due to my negligence on this topic.
Then, the judgement of Honorable SC rescued me. I read the judgement and wrote everything I learnt from it. Hope, I have not hurt sentiment of anyone.
Title courtesy:- Saumya Krishna Ma'am
Friday, December 27, 2024
A Humble Tribute
In the year 2010, I had the opportunity to meet him at PM's Residence.
He came towards us and asked in his most humble and generous yet firm voice, "नमस्ते, कैसे हैं आप?"
His presence was not intimidating, though the teachers with us and the security personnel had made it tense; he was quite normal. We, the students were in Awwww... How can a PM be so humble.
I sat right behind him for photo shoot.
I could feel his innocent energy...
The photo is blurred over years and so is my vision because of tears.
Yes sir, the History should be kind to you 🙏
Wednesday, December 25, 2024
मैं, मेरी यात्रा और बूंदों का शोर
तभी एक नन्ही बूंद ने चिढ़ाया- "तुम हमसे पहले पहुंचेगी या बाद"
मैंने कहा- "मैं तो रेल की गति पर निर्भर हूँ, तुम्हारे जैसी स्वच्छंद कहां"
अब बहुत सी बूंदों ने एक साथ चिढ़ाया- "हुह, तुम क्या जानो स्वच्छंदता, तुम क्या जानो अल्हड़पन का स्वाद, तुम क्या जानो कड़ी धूप, शीतल चांदनी और तेज हवा में यात्रा का आनंद, तुम क्या जानो प्रकृति का सान्निध्य... तुम आत्मनिर्भर नहीं; फंसी हुई हो सुविधाओं के जाल में"
इतने में ट्रेन पुल पार कर गई. पर स्वच्छंद बूंदों का शोर दिमाग में बना रहा. मैं बैठी खिड़की से बाहर भागते दृश्यों को देखते हुए सोचती रही. सच में ये कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, लेकिन कौन पहले पहुंचेगा. अगर मैं पहले पहुंच भी गई तो क्या हासिल कर लिया. कंबल तानकर सोई और अगली सुबह उठी तो गंतव्य पर पहुंच गई. यात्रा का आनंद सच में नहीं लिया. बरबस ही राहुल सांकृत्यायन जी की याद आई. पदयात्रा का विचार मन में आने लगा. ठीक उसी वक़्त यथार्थ से भी साक्षात्कार हुआ. नौकरी करता व्यक्ति अगर पदयात्रा पर निकल पड़े तो नौकरी खतरे में पड़े. ठीक कहा था बूंदों ने, मैं स्वच्छंद नहीं. #RealityCheck
बाहर अंधेरा होने लगा था, सहयात्री सोना चाह रहे थे. मैंने भी कंबल तानकर मेरे सर्वप्रिय लेखकों में एक रस्किन बॉन्ड की किताब निकाल ली. मन में बूंदों का शोर बना रहा. मस्तिष्क अपने बचाव के बहाने ढूंढता रहा. "हां तो ठीक तो है, रेलगाड़ी, हवाई जहाज, पानी का जहाज या किसी भी तरह के संचार माध्यम का आविष्कार मनुष्य ने ही तो किया है. तो अगर मनुष्य उनका लाभ उठा ले तो क्या बुराई है. हज़ार कामों और डेडलाइन्स के मकड़जाल में फंसा मनुष्य कहां कर पाएगा स्वच्छंद पदयात्रा!"
तमाम तार्किक बातों के बावजूद भी मन शांत नहीं हो पा रहा था, यहां तक कि रस्किन बॉन्ड की प्यारी रचनाएँ भी आज सुकून नहीं दे पा रहे थीं. बूंदों का शोर अनवरत जारी था, "तुम स्वच्छंद नहीं..."
मैंने किताब बंद करके करवट बदली. सहयात्रियों की गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश की. भाषाई बाध्यता थी, वो लोग बांग्ला में बातें कर रहे थे. बीच- बीच में थोड़ी अंग्रेजी और जरूरत पड़ने पर बहुत थोड़ी सी हिन्दी. ऐसा नहीं है कि मुझे सहयात्रियों की बातें जानने में कभी भी बहुत रुचि होती है, पर कानों में पड़ी आवाज का मतलब नहीं समझ आना अजीब लग रहा था. पता नहीं क्यों आवाज सुनते हुए भी न समझ पाने की खीझ हावी होने लगी. मैंने ईयरफोन लगा लिया और गाने सुनने लगी. संगीत मुझे हमेशा से शांति प्रदान करता है. नींद आने लगी थी, तभी फोन बज उठा. एक सहकर्मी की कॉल थी... काम से संबंधित. दिमाग में बूंदों का शोर फिर से शुरू हो गया. सहकर्मी से मैंने हूँ हां करके बात की. वैसे भी मैं यात्राओं के दौरान रिजर्व रहना पसंद करती हूँ, आज और ज्यादा सतर्कता थी कि जिन सहयात्रियों की बातें मुझे समझ नहीं आ रही, उन्हें मेरी बातें पता ना चल जाएं... उफ्फ, हम मनुष्य और हमारी दुश्चिंताएं.
उसके बाद एक एक करके घरवालों की कॉल आई. उन्हें यात्रा की दौरान ना बात करने वाली मेरी आदत पता है, तो जल्दी जल्दी बात हो गई. कई लोगों के वॉट्सएप मैसेज आ रखे थे, वैसे तो यात्रा के दौरान फोन चलाने में भी मुझे खीझ मचती है. गतिमान रेल के साथ मेरे विचार भी तीव्र गति से चलते हैं, पर अपने विचारों की तंद्रा भंग करके मैसेजेस का रिप्लाई देना जरूरी था वरना लोग बुरा मान जाते हैं. ये बात ज्यादातर लोगों की समझ से परे होती है कि किसी को मोबाइल फोन से भी खीझ हो सकती है. इस चक्कर में कुछ रिश्तेदार और कुछ दोस्त मुझसे रूठ चुके हैं और मैंने भी कभी उन्हें मनाने समझाने की कोशिश नहीं की. अब मैं जो हूँ, मैं वो हूँ. कम से कम इस बात की स्वतंत्रता तो रखूं मैं. बूंदे चाहे जितना हंसे मुझपर, स्वच्छंद तो हूँ मैं... कुछ मामलों में.
पता नहीं कब नींद आ गई. खूब गहरी नींद जो तेज आवाज़ से खुली. नीचे बर्थ वाली सहयात्री बहुत जोर जोर से बोल रही थी, भाषा समझ नहीं आई पर इतना समझ आया कि उनको गया स्टेशन पर कुछ काम रहा होगा क्योंकि बार बार गया का नाम आ रहा था. वो बहुत बेचैनी में टहलने लगीं. अपनी बेचैनी के बीच शायद उनको मेरे चैन से लेटे रहने से जलन हुई क्योंकि मेरी ओर देखकर बोली, "खूब शूतलो".
मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी पर काबू पाया. दरअसल उन्हें अंदाजा नहीं था कि उनके जोर जोर से बोलने पर मैं जाग गई हूँ, अधखुली पलकों से उनका परेशान चेहरा देख चुकी हूँ और अपने बारे में टिप्पणी भी सुन चुकी हूँ. उनके मुड़ते ही मैने कंबल से मुंह ढक लिया और बिना आवाज के हँस पड़ी. पता नहीं क्यों मुझे लगा मेरे साथ साथ बूंदे भी हँस पड़ी मानो कह रही हों- "ये होता है यात्राओं का असली आनंद. खलल वाली नींद और खीझ वाले पलों के बीच हँसी के मौके."
मैंने वक़्त देखा. अभी बारह भी नहीं बजे थे. वो महिला दुबारा किसी से फोन पर बात करने लगी थीं. अबकी बार आवाज थोड़ी संयमित थी. थोड़ी देर बात करने के बाद वो हँसने लगी. शायद गया स्टेशन पर उनका काम हो गया था. फोन रखकर वो बहुत जल्दी सो गईं. ट्रेन ने गति पकड़ी और मुझे भी दुबारा नींद आ गई.
रेल यात्रा और निर्विघ्न नींद शायद दो अलग चीजें हैं. अबकी बार नींद खुली M for Mango, N for Nest, O for Orange... सुनकर. रात के डेढ़ बज रहे थे. सामने वाले बर्थ पर बच्ची जग गई थी, मां बाप को जगा दिया था और उसको ज़ोर से पढ़ाई आई थी. यहाँ भी बाकी बातें बांग्ला में थी, समझ ना आई. इतना जरूर समझ आया कि मां बाप बड़ा लाड जता रहे थे बच्ची पर. नींद टूटने की खीझ कम हो गई और मन ही मन मां बाप के सब्र की सराहना करने लगी. साथ ही साथ बूंदों का ख्याल भी आया "इलाहाबाद से साथ चले थे, अभी पता नहीं कहां पहुंची होंगी बूंदे." मेरी ट्रेन के हावड़ा स्टेशन पहुंचने का समय था सुबह 05:45 बजे. अब चिंता होने लगी, ऐसे ही नींद में खलल पड़ता रहा तो पता नहीं सुबह नींद खुलेगी या नहीं. फिर ध्यान आया कि हावड़ा स्टेशन आखिरी पड़ाव है, शोर से नींद खुल ही जाएगी.
सुबह वाकई शोर से ही नींद खुली. सारे लोग उतरने को तैयार थे. खिड़की से बाहर देखा तो हिन्दी, अंग्रेजी और बांग्ला में स्टेशन का नाम लिखा हुआ था. निगाहें बांग्ला भाषा पर अटक कर रह गईं. ये भाषा मैं नहीं जानती. मैं बहुत कुछ नहीं जानती. दुनिया में कोई भी सबकुछ नहीं जानता. दुनिया से 'जानकार' शब्द हटा देना चाहिए.
"अरे पगली, सबकुछ नहीं जानने में ही तो मनुष्य जीवन का आनंद है, वरना दुनिया से 'अचरज, अचंभा' इत्यादि शब्दों को हटाना पड़ेगा" अब मुझे लगने लगा था कि बूंदे गंगा मईया की लहरों को छोड़ कर मेरे दिमाग में ही तैर रही हैं. सर झटक कर मैं उतर पड़ी.
हावड़ा स्टेशन का प्लेटफॉर्म 21 भोर के उजाले में मटमैला सा लगा. बहुत ज्यादा भीड़. अलग भाषा. कानों में आवाज आए पर मतलब का पता नहीं. पर एक आवाज सुनी और मतलब भी समझ आ गया, "आज छठो पूजा... भीड़ कोम"
हां वो दिन छठ पूजा का था. सुबह वाले अर्घ्य का वक्त था पर होटल में चेक- इन का समय दो बजे था. यानि अभी नहाया नहीं जा सकता था. मैंने स्टेशन का जायजा लिया. दो तीन चक्कर लगाने के बाद कई चीजें समझ आ गईं. वेटिंग रूम पहली मंजिल पर था और अमानती समान गृह प्लेटफॉर्म 23 पर. गूगल मैप पर हावड़ा ब्रिज 100 मीटर की दूरी पर था. समान टिका कर मैं निकल पड़ी.
पहला विचार- "इस जगह पर भीड़ बहुत है."
दूसरा विचार- "इस जगह पर बदबू बहुत है."
सर झटक कर नाक पर रुमाल रखा. बैग में मास्क रखना चाहिए था. कोरोना का डर चला गया और हम मास्क भूलने लगे हैं.
खैर, सुंदर से हावड़ा स्टेशन के साथ सेल्फी खींच ली. ऐतिहासिक हावड़ा ब्रिज भी सामने नज़र आ गया. बहुत ज्यादा भीड़ और बहुत ज्यादा बदबू के बीच भी फोटो खिंचाना तो बनता था. मनुष्य घूमने इसीलिए जाता है कि फोटो खिंचाए और दूसरों को दिखाए.
नाक दबाए वापस लौट पड़ी और वेटिंग रूम के लिए पहली मंजिल पर चढ़ पड़ी. चढ़ते ही हुगली मईया के दर्शन हो गए. गंगा की सहायक नदी हुगली. स्टेशन खत्म होते ही पीली टैक्सियों से भरी सड़क, फिर पार्किंग एरिया और फिर हुगली. सुबह की रौशनी में झिलमिलाती बूंदे.
"एक मिनट, क्या ये वही बूंदे हैं जो इलाहाबाद में मिली थीं?"
"नहीं नहीं, ऐसा कैसे संभव है, गंगा की बूंदे हुगली में कैसे? सभी बूंदे एक जैसी दिखती हैं इसीलिए मुझे भ्रम हो रहा है."
फिर से सर झटक कर मैं वेटिंग रूम में चली गई. फोन चार्ज करने और थोड़ा आराम करने. आसपास घूमने की जगहों को गूगल पर ढूंढा तो सबकुछ 10 बजे खुलता था.
आचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान यानि कलकत्ता वनस्पति उद्यान जाना तय किया. हावड़ा शहर की बदबूदार सड़कों से होते हुए मैं शिबपुर इलाके में पहुंच गई. वनस्पति उद्यान में प्रवेश करते ही जन्नत का एहसास हुआ. इतना सुंदर, इतनी हरियाली, आहा, मजा आ गया.
लेकिन, अभी संघर्ष बाकी था.
प्रवेश द्वार पर जो गार्ड थीं उनको सिर्फ बांग्ला भाषा आती थी. 15 मिनट की मशक्कत के बाद हम दोनों एक दूसरे की बात थोड़ी सी समझ पाए. उन्होंने मेरे बैग से बिस्किट और चिप्स के पैकेट हटवा दिए, पानी की खरीदी हुई बोतल हटवा दिया लेकिन फ्लॉस्क रहने दिया. तब समझ आया वो प्लास्टिक हटाने की बात कह रहीं. इसके अलावा उन्होंने बहुत सी बातें और कहीं जो शायद अंदर के नियम थे और मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आए. मैंने सोचा किसी साइनबोर्ड पर पढ़ लूंगी. भाषाई समस्या देश के बाकी राज्यों में भी आई थी, पर इस बार ज्यादा महसूस हो रही थी.
खैर... मुझे बरगद का पेड़ देखना था. 270 साल पुराना बरगद वृक्ष. मेरे रोमांच की सीमा ना थी. दीदी को वीडियो कॉल किया और चल पड़ी. चारों ओर हरियाली, करीने से सजे कतार में लगे अलग अलग प्रजाति के पेड़- पौधे और कई सारी झीलें. मज़ा ही आ गया. सीधा चल कर मैं बाईं ओर मुड़ गई. लगा ये रास्ता बरगद वृक्ष तक तक जल्दी पहुंचा देगा. इक्का दुक्का लोग ही थे अंदर. पैदल चलने में बहुत आनंद आ रहा था और तभी सामने नज़र आईं चमकती हुई बूंदे. अपने ऊपर बड़े से स्टीमर और कई छोटी छोटी नाव का बोझ उठाए. अच्छा, यानि बगल से हुगली नदी प्रवाहित हो रही थीं. एकदम हरे हरे पेड़ों के बीच से झांक कर एकदम सफेद पानी का प्रवाह देखना आनंददायी था. नवंबर महीने की धूप और हवा भली लग रही थी. मेरा रोमांच और बढ़ने लगा था. मन हो रहा था नदी की तरफ मुंह करके बैठ जाऊं और रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का साहित्य पढ़ू. या राहुल सांकृत्यायन जी का कोई यात्रा वृत्तांत पढ़ू. दीदी से इन्हीं बातों की चर्चा करते मैं आगे बढ़ने लगी. बीच बीच में मम्मी भी आकर उस वक़्त के किस्से बता दे रही थीं जब उन्होंने बोटेनिकल गार्डन देखा था. तब मम्मी नौवीं कक्षा में थीं. उम्र का बड़ा पड़ाव कितना अच्छा होता है न, आपके पास तमाम अनुभव होते हैं जो आप दूसरी पीढ़ी को बता सकते हैं. आज वाली बातचीत मुझे अच्छी लग रही थी. दीदी से साहित्य की बातें और मम्मी से उनके अनुभवों की बातें.
मैं धन्य धन्य हो गई. शुक्रिया जिंदगी.
मैं नदी के साथ वाली सड़क पर चल रही थी. दीदी और मम्मी से बात करते करते मैं बार बार अपनी बाईं ओर बहती हुगली की लहरों को देख ले रही थी. पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि हुगली की बूंदों को गंगा की बूंदों ने सारी बातें बता दी थीं और अब ये बूंदे मेरे यूं स्वच्छंद विचरण करने पर मुझे शाबाशी दे रही थीं. इनका नेटवर्क बड़ा मजबूत है, सारी बूंदे एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़ी जो हैं. तभी मुझे हुगली नदी सप्रेम मुस्कुराती नज़र आई मानों मेरे विचारों को पढ़ लिया हो. मैं वैसे भी सदैव हीं प्रकृति माता की शक्तियों के आगे नतमस्तक रहती हूँ, आज भी घुटने टेक दिए.
एक बेंच पर अपना सामान टिका कर मैंने हुगली माता के साथ फोटो खींचा ली और वीडियो बना लिया.
प्रफुल्लित, पुलकित, आह्लादित, आनंदित मन से मैं वनस्पति उद्यान की सुंदरता और अपने जीवन की सार्थकता की सराहना कर ही रही थी कि फोन बज उठा.
एक सहकर्मी की कॉल थी. "मूट कोर्ट हॉल खुल गया है और वहां पुताई का काम हो रहा है."
मैं अपनी काल्पनिक दुनिया से यथार्थ में लौट गई. सबसे पहले डर लगा. अभी थोड़ी देर पहले जो बूंदे मेरे स्वच्छंद विचरण के लिए मुझे शाबाशी दे रही थीं, अब फिर से मुझे चिढ़ाएंगी. मैंने कनखियों से हुगली की तरफ देखा. बूंदे शांत थीं.
"अच्छा, यानि नटखट बूंदे कल रात से आज दोपहर होते होते मैच्योर हो गईं."
"नहीं नहीं, जरूर ये शांति इन बूंदों की किसी बड़ी साजिश के पहले की शांति है."
मैं अब दाहिनी ओर मुड़ गई. मैंने साइनबोर्ड ढूंढा. मैप के हिसाब से बरगद वृक्ष आसपास ही था, पर पता नहीं क्यों नज़र नहीं आ रहा था. इक्का दुक्का लोगों से पूछने की कोशिश की पर भाषाई समस्या... अब मैं चलते चलते थकने लगी थी. पानी भी खत्म होने लगा था. खाने को तो कुछ था ही नहीं पास में. अब दोपहर की धूप भी चुभने लगी थी. एक सेकंड को सोचा, वटवृक्ष देखे बिना लौट जाऊं क्या. अगले ही पल सोचा, पता नहीं दुबारा कब आने का मौका मिले. हिम्मत बटोर कर फिर चल पड़ी.
... और सामने नज़र आया अपने जीवन के 270 वसंत देख चुका विशालतम बरगद. मैं मंत्रमुग्ध सी उस ओर चल पड़ी.
वैसे तो भूख प्यास से बुरा हाल था, पर इस 270 साल के बुजुर्ग को देखकर अपनी युवावस्था को जागृत किया और हंसते मुस्कुराते फोटो खिंचाने लगी. मम्मी की यादें फिर ताजा हुईं, कहने लगी, "पहले लोग शाखाओं पर अपने नाम लिख दिया करते थे"
अच्छा, तभी अब इस वृक्ष को चारों ओर से घेर दिया गया है. सही किया, वरना अपने लंबे जीवनकाल में ये पेड़ पता नहीं कितने लोगों के नाम का टैटू अपने शरीर पर ढोता. हालांकि मेरी इस बात की बड़ी इच्छा हो रही थी इसकी छाया में बैठकर बातें करूं. पूछूं कि इतने सालों में क्या क्या महसूस किया. क्या मनुष्य वाकई सभ्यता की ओर उन्मुख है या और बर्बर होते जा रहा है. मौसम कितना बदला है. भाषा, पहनावा, रहन सहन, खान पान कितना बदला है.
पेड़ मौन रहा. गंभीर रहा, मानो कह रहा हो, "अपने सवालों के जवाब खुद ढूंढ़ो"
धूप बहुत तेज हो गई थी. मैं वापस चल पड़ी. इरादा ये था कि जल्दी से मेन गेट तक पहुंच जाऊं. साइनबोर्ड पर तरह तरह के बगीचों का जिक्र था, पर अब और चलने की ताकत नहीं बची थी.
बूंदों ने फिर चिढ़ाया, "बड़ी आई खुद को राहुल सांकृत्यायन जी की पदयात्राओं की फैन कहनेवाली"
अब आगे बढ़ते हुए मेरे दिमाग में जो मैप बन रहा था वो ये था कि मेन गेट से मैं बाएं मुड़ी थी, फिर दाएं फिर एक और बार दाएं तो अब फिर से दाईं ओर मुड़ने पर मेन गेट आ जाएगा. यही सोच कर दाईं ओर मुड़ पड़ी, जल्दी ही एक गेट आ भी गया, पर ये वो गेट नहीं था जहां से मैंने प्रवेश किया था और जहां मेरा बाकी सामान रखा हुआ था. वहां के गार्ड से मैंने पूछा... फिर वही भाषाई समस्या. इशारों इशारों में जितनी बात समझ आई, उस रस्ते मैं फिर से चल पड़ी.
रास्ता भटकने से कोई घबराहट नहीं हो रही थी. बस भूख और थकान से बुरा हाल था. लेकिन नज़ारे बहुत सुंदर थे. बीच बीच में कई सारी झीलें थीं. पानी की बूंदे मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं थी इस बार. मन ही मन ये वादा करते हुए कि दुबारा बहुत सारा समय लेकर यहां आऊंगी और बैठकर साहित्य पढूंगी, या फिर इन बूंदों से JURISPRUDENCE जैसे गंभीर विषय पर चर्चा करूंगी, इन्हें Doctrine of Social- Solidarity समझाऊंगी कि मनुष्य तुम्हारे जैसा स्वच्छंद नहीं हो सकता क्योंकि हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं; मैं सही गेट पहुंच गई.
होटल में चेक इन का वक़्त भी हो चुका था. हावड़ा स्टेशन पहुंच कर अमानती सामान गृह से अपना सामान उठाया, कैब बुक किया और सोचा थोड़ी देर में होटल पहुंच कर नहा धुला कर थोड़ा आराम करके कोलकाता शहर में एक दो जगहें और घूम लूंगी क्योंकि अगले दो दिन तो इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस अटेंड करना था और उसी रात वापसी का टिकट था.
लेकिन...
अभी भाषाई संघर्ष बाकी था. कैब ड्राइवर से ठीक से संवाद नहीं हो पा रहा था. हमलोग कमर्शियल पार्किंग 2B पर खड़े थे, न मैं ड्राइवर को अपनी बात समझा पाई न उसकी समझ पाई. उसने कैब कैंसिल की. पेनाल्टी मुझपर लगी. ऐसे ही करके एक घंटे की मशक्कत के बाद एक कैब बुक हो पाई और मैं हावड़ा से कोलकाता पहुंच पाई.
थकान से बुरा हाल था. सोचा, गरम पानी से नहा लेती हूँ, थकान उतर जाएगी.
लेकिन...
मेरा शक सही था. अभी बूंदों की साजिश का वक़्त था. बाथरूम में नल कुछ ऐसे लगे थे कि बंद नहीं हो पा रहे थे. नल तो ठीक ही लगे होंगे क्योंकि मेरी दोस्त नहाई थीं तो सही से बंद हो गए थे. मुझे समझ आया, ये बूंदे गंगा से निकल कर हुगली तक और अब मेरे बाथरूम तक मुझसे ठिठोली करने के मूड में हैं. गरम पानी के भाप से पूरा बाथरूम भर गया था. रूम सर्विस बुलानी पड़ी नल बंद करने के लिए.
उस वक़्त तो बूंदों ने मुझसे ही साजिश की, पर अगली सुबह जब मेरी दोस्त नहाने गईं तो उनसे भी ठिठोली कर बैठी ये बूंदे. फिर से रूम सर्विस बुला कर नल बंद कराया.
हद होती है मतलब. स्वच्छंदता को लेकर मुझे चिढ़ाने तक तो ठीक था, पर अब यूं परेशान करना... लेकिन हम कर भी क्या सकते थे. बूंदों की शरारत के बीच नहा धुला कर कॉन्फ्रेंस अटेंड करने चले गए.
बूंदों की ये शरारत अगली सुबह भी चली. फिर हम चेक आउट कर गए, दिन में कॉन्फ्रेंस अटेंड किया और शाम को वापस हावड़ा स्टेशन पहुंच गए. ट्रेन आने में अभी वक़्त था. गूगल पर पढ़ रखा था कि हावड़ा के घाट बड़े सुंदर हैं. फिर से अमानती सामान गृह में सामान टिका कर हम निकल पड़े.
लेकिन....
"यहाँ बदबू बहुत है"
"यहाँ भीड़ बहुत है"
"चलो वापस स्टेशन ही चलते हैं"
हुगली माता को प्रणाम किया. मन ही मन पुरजोर गुजारिश की बूंदों से कि अब बस करो, बहुत चिढ़ा लिया इस बार.
हुगली की लहरें शांत रहीं. बूंदों ने फुसफुसा कर कहा, "चलो, ठीक है. अब सही सलामत घर जाओ. फिर कभी अठखेलियां करेंगे... फिर कभी तुम्हारे विचारों को झकझोरेंगे... फिर कभी तुम्हारे दिमाग में शोर मचाएंगे... फिर कभी..."
Thursday, September 12, 2024
कर्मभूमि
कर्मभूमि
दृश्य 1
दृश्य 2
Tuesday, July 9, 2024
An Emotional Note to Maggi
Dear Maggi, thank you for being there every time I need you.
I know during summer vacation, We had a different relationship. I resorted to you just for fun after overeating homemade (Mom made) food.
BUT now, when vacation ends, I am on my own and I came home tired from work, you saved me from starving.
You were there, when I needed something for midnight munching during winters. You were there when I wanted to enjoy rain but was not in a mood to get into complicated process of making पकौड़ा .
Thank you for saving me during examinations and sickness when cooking anything else becomes a tedious task.
Thank you for being a quintessential meal on mountains.
Thank you for being so adaptive.
Dear Maggi, thank you for being there.
शहतूत बचपन में खाए गए इस भूले बिसरे फल पर अचानक निगाह पड़ी... कुछ सेकंड्स लगे याद आने में कि ये तो शहतूत है. ये वही है जिसे हम तूत कहा करते...

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कर्मभूमि (कथा सम्राट प्रेमचंद रचित उपन्यास "कर्मभूमि" का नाट्य- रूपांतरण ) नोट:- लेखिका का कथा सम्राट प्रेमचंद से संबंध --दू...
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राम ज्यादा आम खाता है क्या दीदी ? - यह मेरी अबतक की ज़िंदगी में पूछा गया सबसे तार्किक प्रश्न था. सवाल पूछा था उस छोटी सी बच्ची ने, जो...
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सोलह संस्कारों में जिस संस्कार को सर्वाधिक महत्व मिलते मैंने देखा है, वो है विवाह संस्कार. यहाँ सर्वाधिक महत्व से मेरा तात्पर्य बेवजह की ...
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रविवार की सुबह ब्रह्म बेला में ईश्वर की नेमतें बरसी. बारिश की बूंदों के साथ तेज हवाएं भी चली. इस प्राकृतिक कूलर की ठंडक का वाकई कोई जोड़ न...
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आधुनिक भारतीय हिन्दू विवाह संस्कार एवं इसकी जटिलता (भाग- 1) में जो भूमिका बांधी जा चुकी है, उसके आगे चर्चा शुरू कर रही हूँ. हम...