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Friday, March 28, 2025

 शहतूत


बचपन में खाए गए इस भूले बिसरे फल पर अचानक निगाह पड़ी... कुछ सेकंड्स लगे याद आने में कि ये तो शहतूत है.
ये वही है जिसे हम तूत कहा करते थे. Memory retrieval की इस धीमी प्रक्रिया में मैं तूत के ठेले से आगे निकल गई और फिर लौटकर आई. 
"भईया, ये शहतूत है न" 
फलवाले ने ऐसे घूरा मानो कह रहा हो, "ये बड़ी बड़ी आँखे किसलिए सजा रखी हैं अपने मुँह पर, जो हमसे पूछ रही हो"
अपने बेवकूफाना सवाल की शर्मिंदगी को छुपाते हुए हमने जल्दी से शहतूत खरीद कर बैग में रख लिए. 
घर वापस आकर सबसे ज्यादा हड़बड़ी खरीदी गई नई किताबों को पढ़ने की थी, लेकिन रोजमर्रा के काम चीख चीख कर अपनी तरफ बुला रहे थे, दिन भर की थकान हावी हो रही थी, चाय की तलब लगी थी और दीदी लगातार video call कर रही थी पुस्तक मेला से खरीदे गए खजाने के प्रदर्शन (आज की भाषा में Unboxing) के लिए. 
जाहिर सी बात है, दिलो दिमाग और शरीर ने आराम को चुना. बेतरतीबी से बैग एक तरफ पटक कर और चाय गटक कर मैं बिस्तर पर पसर गई. 
Video call पर नया खजाना देखा, दीदी ने लगभग हर किताब से कुछ पढ़ कर सुनाया और पता नहीं कब मैं सो गई... 
मीठी नींद से जब जागी तो रोजमर्रा के काम निपटाये और कुछ fruits खाने का सोचा... 

एकदम से याद आया, "बैग में तूत पड़े हैं" मैं बैग पर टूट पड़ी. 
ये फल इतना दुर्लभ तो है नहीं अपने देश में, पता नहीं मुझे इतने सालों से खाने को क्यों नहीं मिला... 

कुछ शहतूत खट्टे थे जिन्हे अंखियो से गोली मारते हुए खाया. इन खट्टे शाहतूतों ने बचपन की मीठी यादों में पहुँचाया. 

कौन कहता है Time- travel सिर्फ जादुई कहानियों में होता है 😊

Friday, February 28, 2025

 "छुक- छुक चले जीवन की रेल"



मुख्य पात्र: कुली, चायवाला, समोसे- पकौड़ी वाला, सफाई कर्मचारी, भिखारी, किताबवाला 
अन्य पात्र: कुछ यात्री (पति पत्नी) (4 Students) (3 बुजुर्ग) (पापा की परी) (प्रतिदिन यात्रा करने वाले 4 passanger) 
 
(पर्दा उठता है. मंच पर सभी मुख्य पात्र अपना काम कर रहे हैं. नेपथ्य से रेलवे- उदघोषिका (Announcement) की आवाज आती है.)

Railway Announcement:- यात्रीगण कृपया ध्यान दें. ये 'पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण मध्य रेलवे' का जीवनपुर रेलवे स्टेशन है. शरारतपुर से चलकर हरारतपुर को जानेवाली बकरी एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से मात्र 23 घंटे की देरी से प्लेटफार्म संख्या 1 पर, नहीं- नहीं 2 पर, शायद 3 या 4 पर आनेवाली है. यात्राओं को हुई असुविधा के लिए रेलवे को बिल्कुल भी खेद नहीं है. 

(नेपथ्य से पटरियों पर चलती रेल की आवाज आती है. सभी मुख्य पात्र और जोर शोर से अपना काम करने लगते हैं.)
(मंच पर यात्रियों का दल आता है. भीड़ बढ़ती है.)

चायवाला- चाय, चाय- चाय, चाय पी लो चाय. बच्चा पिए जवान हो जाए, बूढ़ा पिए हसीन हो जाए. Special chai special chai

समोसे वाला- पेट की आग बुझाओ, झोलदार समोसे खाओ. बाबू खाओ, भइया खाओ, अपनी बीवी को खिलाओ. छुटकू छुटकी को भी खिलाओ, समोसे... ताजा ताजा समोसे खाओ.

(Platform/मंच पर यात्रियों की भीड़ आ जाती है)

(Scene with पति पत्नी and समोसेवाला)
पति- अरे खिसियाये ही रहोगी क्या सारा दिन. चल तो रहे हैं तुम्हारे मायके. 
पत्नी- बड़ा न चल रहे हैं. मेरे बच्चों को तो आने नहीं दिए आपके मम्मी- पापा. कहने लगे मन नहीं लगेगा. अरे, बच्चों के नाना नानी को भी तो मन होता है ना बच्चों से भेंट करने का, लेकिन नहीं...
पति- अच्छा जाने दो, फिर कभी बच्चों के साथ जाना...
पत्नी- आए हाय, फिर कभी बच्चों के साथ जाना; बड़ा ना रोज मायके जाते हैं हम. साल में गिन कर दो तीन बार जाते हैं. चले जाएंगे तो घर का काम कौन करेगा. हुह
पति- अरे काहे झगडा कर रही हो. सब लोग देख रहे हैं. 
(तभी वहाँ समोसा वाला आ जाता है) 
समोसा वाला- का भईया, भौजी खिसिया गई क्या. ये लो गरम ताजा समोसे खिलाओ, नाराज भौजी को मनाओ. 
पत्नी- अरे इ काहे खरीद कर खिलाएंगे, इनका तो बस, पूरी पका लो, रास्ता का खाना बांध लो. ये नहीं होता कि कह दे आज खाना मत पकाओ, हम खरीद देंगे. हुह
(पत्नी नाराज होकर जाने लगती है. पति समोसे वाले पर गुस्सा करता है) 
पति- तुम तो  झगडा और बढ़ा दोगे. हटो
(पति अपनी पत्नी के पीछे भागता है. भिखारी लंगड़ाते हुए भीख मांगता है. अन्य यात्री मुख्य मंच पर आ जाते हैं) 

Railway Announcement:- यात्रीगण कृपया ध्यान दें. नाराज बीवी को और नाराज ना करें. समय रहते समोसे खरीद लें वरना आपके ऊपर गरम आलुओं की बरसात हो सकती है. 

(Scene with बुजुर्ग यात्री)
पहला बुजुर्ग - जैसे ये लड़ रही है न समोसा के लिए, हमारी मलकिन, अरे आपकी भौजी भी ऐसे ही लड़ती थी इमरती खाने के लिए... 
दूसरा बुजुर्ग- का कह रहे हैं भईया. भौजी कहाँ लड़ाकिन थी. अरे हमारे जमाने में कोई औरत ऐसे खुल्लेआम नहीं लड़ती थी. आजकल की पतोहिया सर चढ़ी, नाकचढ़ी आ रही है.
तीसरा बुजुर्ग- खाली पतोहिया काहे, बेटवा सब भी आजकल का कम है का? शर्म हया बेच खाया है. ये पीढ़ी ही बेकार है. अरे, एक हमारा जमाना था...

(उनकी बात अधूरी रह जाती है. वहां कूली आ जाता है और उनका सामान उठा कर ले जाने लगता है.
पहला बुजुर्ग:- ए बाबू, क्या कर रहे हो? 
कूली:- आइए बाबूजी, आपका सामान पहुंचा दें.
दूसरा बुजुर्ग:- अरे रुपया पैसा कितना लोगे, तय कर लो पहले. 
(कूली उनकी बात नहीं सुनता, जल्दी जल्दी जाने लगता है. दो बुजुर्ग घसीटते हुए उसके पीछे पीछे चलते हैं)
तीसरा बुजुर्ग:- ससुर इतना तेज चल रहा है, सामान लेकर भाग न जाए कहीं.

Railway Announcement- यात्रीगण कृपया ध्यान दें. यदि आप कूली से अपना सामान उठवाना चाहते हैं तो कृपया मैराथन दौड़ की practice करके आईए वरना आपका सामान आपसे बहुत पहले गंतव्य तक पहुंच जाएगा.

Group of students मंच पर आ जाते हैं)
(Scene with group of students and किताबवाला)

First student- बताओ यार, ट्रेन 23 घंटे लेट हो गई. अब एक दिन की class miss हो गई. एक दिन की class miss होने से पता नहीं कैसे attendance % बहुत कम हो जाता है. हमारी कोई गलती भी नहीं है. हमारी problem कोई नहीं समझता. 
Second student- मेरी तो मैम ने आज ही project - submission की last date रखी थी. अब late submission पर डांट पड़ेगी. मैम को लगेगा कि हम बहाना मार रहे. हमारी कोई गलती भी नहीं है. हमारी problem कोई नहीं समझता. 

(तभी इनके सामने एक किताबवाला आता है. उसने आधे शरीर पर magazines लटका रखा है और आधे पर चिप्स के पैकेट)

किताबवाला- लंबे सफर को छोटा बनाइए, बोर हो रहें हैं तो रोमांच लाइए. पढ़िए पढ़िए, मजेदार कहानियां पढ़िए. घर में छोटे बच्चों के लिए General knowledge की किताब ले जाइए. 
Third student- ए भईया सुनिए, बेच आप किताब रहे हैं और लेकर घूम रहें हैं चिप्स. क्यों? 
किताबवाला- आपको कौन सी किताब खरीदनी है दीदी?
Fourth student- बोरियत दूर करने के लिए हमारे पास मोबाइल है. किताब की जरूरत हमको नहीं है.
किताबवाला- आप पूछ रही थी न कि बेच आप किताब रहे हैं और लेकर घूम रहें हैं चिप्स. क्यों? क्योंकि आपलोग किताब नहीं चिप्स खरीदते हैं. बताइए, कितने पैकेट लेंगी?
All four students - four packets 
(किताबवाला अफसोस से सिर हिलाता है)
(तभी वहाँ पापा की परी कुली के सिर पर सामान रखे आती है)

(Scene with पापा की परी & कुली)
पापा की परी- Oh God. कितना crowd है यहाँ and this place is so dirty. पापा ने बोला भी था कि flight से जाओ but मुझे तो Reel with Rail बनानी थी, so I came here. कुली भाया, आप luggage के साथ यहाँ खड़े रहो, मैं Reel बना लूँ पहले. 
कुली- मैडम, उस गाने पर बनाइये ना, "हट जा सामने से, तेरी भाभी खड़ी है" आप सारा अली खान और हम वरुण धवन, चलती है क्या नौ से बारा
पापा की परी- भाया, you are so funny, मैं सबके साथ Reel बनाऊंगी. 

(तभी वहाँ कुछ daily passengers आ जाते हैं) 
(Scene with daily passengers) 
First passenger- देश का population इतना बढ़ते जा रहा है. नहीं तो पहले कहाँ इतनी भीड़ होती थी station पर. 
Second Passenger- सही कह रहे हैं. 25-30 साल से नौकरी कर रहे हैं हमलोग. रोज रोज सुबह की कोई गाड़ी पकड़ कर चले जाते थे, शाम की गाड़ी से चले आते थे. कभी कोई दिक्कत नहीं होती थी. 
Third passenger- ये भीड़ भी कोई भीड़ है. लग रहा है आपलोग महाकुंभ वाला भीड़ भगदड़ देखे ही नहीं हैं.
Fourth passenger- भगदड़ तो अब होगा, वो देखिये TT आ रहा. बताइये महाराज, अब रोज रोज का यात्री भी ticket लेगा. इ ससुर अब 100-50 लेकर बात खत्म भी नहीं करता. चलिए, भागिये. 
(चारों भागते हैं) 

Railway Announcement:- यात्रीगण कृपया ध्यान दें. शरारतपुर से चलकर हरारतपुर को जानेवाली बकरी एक्सप्रेस चलने को तैयार है. यात्रियों से निवेदन है कि अपना अपना स्थान ग्रहण करें. 

(फिर से हलचल और ट्रेन का जाना, create the scene with sound effects not actual train)

(सारे यात्री मंच से चले जाते हैं. सभी मुख्य पात्र मंच पर रह जाते हैं. कुछ मुख्य पात्रों का डायलॉग)
सफाई वाला- देखत हो भईया, जैसे रेलगाड़ी आवत है जावत है, वैसे ही धरती पर आदमी जन आवत है जावत है, हो हल्ला मचावत है, गंदगी फैलावत है और कहानी खतम. 

भिखारी- अरे सब लोग कहाँ गंदगी फैलावत है, तोहार जैसा कुछ लोग सफाई भी तो करत है. 

सफाई वाला- हाँ ससुर, हमार जैसा लोग ही सफाई करत. तोहार जैसन नहीं ना कि हाथ पैर सलामत और जबरदस्ती का लंगड बन कर भीख मांगत. 

भिखारी- अरे बबुआ, ईमानदारी का जिनगी का होई. तनिक नमक मिलावा. तनिक झूठ फरेब का मसाला डाला. सुखा फीका जिनगी में कौन मजा. 
(भिखारी आँख मारता है) 
(तभी फिर से Announcement होती है)

Railway Announcement- यात्री कृपया ध्यान दें. ये 'पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण मध्य रेलवे' का जीवनपुर रेलवे स्टेशन है...
सभी एक साथ:- यात्रियों को हुई असुविधा के लिए रेलवे को बिल्कुल भी खेद नहीं है.
(सभी मुख्य पात्र फिर से अपना काम करने लगते हैं. पर्दा गिरता है.)

The End



Monday, January 20, 2025

 तृतीय प्रकृति: अस्तित्व से अस्मिता तक

(NALSA vs. UOI में पढ़े गए तथ्यों का नाट्य रूपांतरण)

Scene 1

(5 Transgenders come on the stage with a girl. They are clapping and singing.)

“अकाल मृत्यु मरता काम करता जो चांडाल का,

काल भी उसका क्या बिगाड़े भक्त जो महाकाल का”

(Then enters a girl named Shubhangi who looks upset)

मंगला (1st TG)- अरे शुभांगी बिटिया, तू उदास क्यों है? अरे तेरी मां और चारों मौसियां तेरी खुशी के लिए ही तो जीती है. 

शुभांगी (the Girl)- अरे मां, स्कूल में सब मुझे चिढ़ाने हैं. कहते हैं तेरी मां न मर्द है न औरत. धरती पर मर्द और औरत ही रहते आए है.

गौरा (2nd TG)- अरे कौन कहता है ऐसा. सुन बिटिया, जो ऐसा कहता है उसको हमारा इतिहास पता ही नहीं है. औरत और मर्द के अलावा तृतीय प्रकृति यानि हम भी तो रहते आए है हमेशा से. अरे, हमारे अस्तित्व पर तो स्वयं भगवान राम ने मुहर लगाई थी.

शुभांगी (the Girl)- अच्छा, वो कैसे मां?

लक्ष्मी (3rd TG)- सुन बिटिया, त्रेता युग की बात है, भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वनवास को चले. 

Scene 2

(Ram, Lakshman and Sita appear on the stage wearing Gerua. A few people come behind crying and making noise.)

सबलोग एक साथ- प्रभु, आप अयोध्या छोड़कर ना जाएं.

राम- मैं पिता के वचनों से बंधा हुआ हूँ. चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके मैं लौट आऊंगा. सभी नर और नारी घर चले जाएं. 

(Ram, Lakshman and Sita go towards another side of the stage and come back. Meanwhile some people leave the stage but two of them are still there.)

1st Person- राजा राम ने सभी नर और नारियों को घर जाने का आदेश दिया है.

2nd person- किन्तु हम न तो नर हैं और न हीं नारी. तो यहीं रुककर प्रभु के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं.

(Then Ram, Lakshman and Sita come back)

लक्ष्मण- चौदह वर्षों बाद हम अयोध्या लौटे हैं.

सीता- अरे प्रभु, ये देखिए, ये किन्नर आपकी प्रतीक्षा में चौदह वर्षों से यहीं खड़े हैं.

राम- आप सबकी भक्ति से मैं भावविह्वल हूँ. मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि आप एक शुभंकर जीव बनेंगे और आप जिसको भी आशीर्वाद देंगे वो फलित होगा.

(All the characters from Ramayan leave the stage. Present characters come centre stage.)

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शुभांगी (the Girl)- अरे वाह मौसी. तुम्हारे अस्तित्व पर तो वाकई भगवान राम ने मुहर लगाई, पर मेरा क्या… सब कहते हैं मैं मां के पेट से नहीं जन्मी.

मंगला (1st TG)- अरे बेटी, तू मेरे पेट से नहीं, मेरे दिल से जन्मी है रे. मेरे भी सीने में मां का दिल है. 

त्रिलोकी (4th TG)- बेटी तुझे पैदा करने वाली मां जब मर गई तो तेरी इस मां ने तुझे गोद ले लिया. ऊपरवाला जानता है बेटी, पूरी ममता से पाला है तुझे तेरी इस मां ने.

शुभांगी (the Girl)- मेरी प्यारी मां. 

    अच्छा मौसी, और कहानी सुनाओ न.

लक्ष्मी (3rd TG)- सुन बिटिया, द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब पांडवों की हार लगभग तय हो चुकी थी.ऐसे समय में राजपुत्र के नरबलि देने की बात आई. इसी समय अर्जुन एवं उलूपी पुत्र इरावन अपनी बलि देने के लिए सामने आया लेकिन उसने एक शर्त रखी कि वो अविवाहित नहीं मरना चाहता. 


Scene 3

(Krishna and Eravan enter the stage)

इरावन- मैं इरावन, अपने कुल की रक्षा के लिए मैं मां काली के सामने अपनी बलि देने को तैयार हूँ, किन्तु मैं अविवाहित नहीं मरूंगा.

कृष्ण- तथास्तु. तुम्हारा विवाह अवश्य होगा.

कृष्ण (थोड़ा आगे बढ़कर)- अब एक दिन की सुहागन और फिर विधवा बनने के लिए तो कोई कन्या तैयार नहीं होगी. अतः, मैं स्वयं स्त्री रूप धारण करुंगा और इरावन से विवाह करूंगा. उसकी मृत्यु के उपरांत मैं विलाप भी करूंगा. कृष्ण के मोहिनी बनने का समय आ गया है. 

(Krishna leaves the stage and enters Mohini. Mohini is holding a mysterious smile and is dancing. She goes to Eravan.)

मोहिनी- मैं आपसे विवाह करने को तैयार हूँ.

(Mohini and Eravan dance together and while dancing they go towards the statue of Goddess Kali. Eravan sacrifices himself and Mohini mourns.)

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लक्ष्मी (3rd TG)- तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में इरावन का मंदिर आज भी बना हुआ है.

(The Characters from Mahabharat leave the stage. Present characters come centre stage.)

शुभांगी (the Girl)- बड़ी दिलचस्प कहानी है मौसी. लेकिन इतने समृद्ध इतिहास के बावजूद सबलोग मजाक क्यों उड़ाते हैं ? 

नैना (5th TG)- अरे वो तो अंग्रेजों के राज में हमारी स्थिति खराब हुई. उन्होंने the Criminal Tribes Act, 1871 बनाया जिसके तहत सारे हिजड़ा लोगों को अपराधी मान लिया गया था. 

गौरा (2nd TG)- दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी हमारी स्थिति खराब ही रही जबतक NALSA VS. UOI के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अस्तित्व पर मुहर नहीं लगा दी. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हमें third gender माना और socially and educationally backward classes of citizens का दर्जा दिया. लेकिन ये सरकार अबतक हमको सही तरीके से reservation नहीं दी है.

मंगला (1st TG)- ऊपर से ये अमरीका वाला कह रहा है कि धरती पर सिर्फ आदमी और औरत ही रहते हैं. हुंह... बौड़म कहीं का.

त्रिलोकी (4th TG)- अब तो श्री गौरी सावंत, लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, अभिना अहर, मंजमा जोगती, शबनम मौसी से लेकर त्रिनेत्र हालदार तक कितने ही हम जैसे लोग हैं जो हमें प्रेरित करते हैं. 

सभी TG एक साथ- तो ये है हमारी यात्रा, अस्तित्व से अस्मिता तक. 

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Note:- Boss ordered me to get our students perform a skit on the theme Transgender. First, I was hesitant to write anything due to my negligence on this topic. 

Then, the judgement of Honorable SC rescued me. I read the judgement and wrote everything I learnt from it. Hope, I have not hurt sentiment of anyone. 

Title courtesy:- Saumya Krishna Ma'am 



Friday, December 27, 2024

 A Humble Tribute 


In the year 2010, I had the opportunity to meet him at PM's Residence. 
He came towards us and asked in his most humble and generous yet firm voice, "नमस्ते, कैसे हैं आप?" 
His presence was not intimidating, though the teachers with us and the security personnel had made it tense; he was quite normal. We, the students were in Awwww... How can a PM be so humble.
I sat right behind him for photo shoot. 
I could feel his innocent energy...
The photo is blurred over years and so is my vision because of tears.
Yes sir, the History should be kind to you 🙏

Wednesday, December 25, 2024

मैं, मेरी यात्रा और बूंदों का शोर


प्रयागराज जंक्शन से ट्रेन खुली और तुरंत ही गंगा मईया के दर्शन हुए. ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही थी और गंगा मईया अपनी गति से. मैंने हाथ जोड़े. गंगा मईया मुस्कुराई. "बंगाल जा रही हो न, मैं भी वही जा रही." 

तभी एक नन्ही बूंद ने चिढ़ाया- "तुम हमसे पहले पहुंचेगी या बाद" 

मैंने कहा- "मैं तो रेल की गति पर निर्भर हूँ, तुम्हारे जैसी स्वच्छंद कहां" 

अब बहुत सी बूंदों ने एक साथ चिढ़ाया- "हुह, तुम क्या जानो स्वच्छंदता, तुम क्या जानो अल्हड़पन का स्वाद, तुम क्या जानो कड़ी धूप, शीतल चांदनी और तेज हवा में यात्रा का आनंद, तुम क्या जानो प्रकृति का सान्निध्य... तुम आत्मनिर्भर नहीं; फंसी हुई हो सुविधाओं के जाल में"

इतने में ट्रेन पुल पार कर गई. पर स्वच्छंद बूंदों का शोर दिमाग में बना रहा. मैं बैठी खिड़की से बाहर भागते दृश्यों को देखते हुए सोचती रही. सच में ये कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, लेकिन कौन पहले पहुंचेगा. अगर मैं पहले पहुंच भी गई तो क्या हासिल कर लिया. कंबल तानकर सोई और अगली सुबह उठी तो गंतव्य पर पहुंच गई. यात्रा का आनंद सच में नहीं लिया. बरबस ही राहुल सांकृत्यायन जी की याद आई. पदयात्रा का विचार मन में आने लगा. ठीक उसी वक़्त यथार्थ से भी साक्षात्कार हुआ. नौकरी करता व्यक्ति अगर पदयात्रा पर निकल पड़े तो नौकरी खतरे में पड़े. ठीक कहा था बूंदों ने, मैं स्वच्छंद नहीं. #RealityCheck

बाहर अंधेरा होने लगा था, सहयात्री सोना चाह रहे थे. मैंने भी कंबल तानकर मेरे सर्वप्रिय लेखकों में एक रस्किन बॉन्ड की किताब निकाल ली. मन में बूंदों का शोर बना रहा. मस्तिष्क अपने बचाव के बहाने ढूंढता रहा. "हां तो ठीक तो है, रेलगाड़ी, हवाई जहाज, पानी का जहाज या किसी भी तरह के संचार माध्यम का आविष्कार मनुष्य ने ही तो किया है. तो अगर मनुष्य उनका लाभ उठा ले तो क्या बुराई है. हज़ार कामों और डेडलाइन्स के मकड़जाल में फंसा मनुष्य कहां कर पाएगा स्वच्छंद पदयात्रा!"

तमाम तार्किक बातों के बावजूद भी मन शांत नहीं हो पा रहा था, यहां तक कि रस्किन बॉन्ड की प्यारी रचनाएँ भी आज सुकून नहीं दे पा रहे थीं. बूंदों का शोर अनवरत जारी था, "तुम स्वच्छंद नहीं..."

मैंने किताब बंद करके करवट बदली. सहयात्रियों की गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश की. भाषाई बाध्यता थी, वो लोग बांग्ला में बातें कर रहे थे. बीच- बीच में थोड़ी अंग्रेजी और जरूरत पड़ने पर बहुत थोड़ी सी हिन्दी. ऐसा नहीं है कि मुझे सहयात्रियों की बातें जानने में कभी भी बहुत रुचि होती है, पर कानों में पड़ी आवाज का मतलब नहीं समझ आना अजीब लग रहा था. पता नहीं क्यों आवाज सुनते हुए भी न समझ पाने की खीझ हावी होने लगी. मैंने ईयरफोन लगा लिया और गाने सुनने लगी. संगीत मुझे हमेशा से शांति प्रदान करता है. नींद आने लगी थी, तभी फोन बज उठा. एक सहकर्मी की कॉल थी... काम से संबंधित. दिमाग में बूंदों का शोर फिर से शुरू हो गया. सहकर्मी से मैंने हूँ हां करके बात की. वैसे भी मैं यात्राओं के दौरान रिजर्व रहना पसंद करती हूँ, आज और ज्यादा सतर्कता थी कि जिन सहयात्रियों की बातें मुझे समझ नहीं आ रही, उन्हें मेरी बातें पता ना चल जाएं... उफ्फ, हम मनुष्य और हमारी दुश्चिंताएं.  

उसके बाद एक एक करके घरवालों की कॉल आई. उन्हें यात्रा की दौरान ना बात करने वाली मेरी आदत पता है, तो जल्दी जल्दी बात हो गई. कई लोगों के वॉट्सएप मैसेज आ रखे थे, वैसे तो यात्रा के दौरान फोन चलाने में भी मुझे खीझ मचती है. गतिमान रेल के साथ मेरे विचार भी तीव्र गति से चलते हैं, पर अपने विचारों की तंद्रा भंग करके मैसेजेस का रिप्लाई देना जरूरी था वरना लोग बुरा मान जाते हैं. ये बात ज्यादातर लोगों की समझ से परे होती है कि किसी को मोबाइल फोन से भी खीझ हो सकती है. इस चक्कर में कुछ रिश्तेदार और कुछ दोस्त मुझसे रूठ चुके हैं और मैंने भी कभी उन्हें मनाने समझाने की कोशिश नहीं की. अब मैं जो हूँ, मैं वो हूँ. कम से कम इस बात की स्वतंत्रता तो रखूं मैं. बूंदे चाहे जितना हंसे मुझपर, स्वच्छंद तो हूँ मैं... कुछ मामलों में.

पता नहीं कब नींद आ गई. खूब गहरी नींद जो तेज आवाज़ से खुली. नीचे बर्थ वाली सहयात्री बहुत जोर जोर से बोल रही थी, भाषा समझ नहीं आई पर इतना समझ आया कि उनको गया स्टेशन पर कुछ काम रहा होगा क्योंकि बार बार गया का नाम आ रहा था. वो बहुत बेचैनी में टहलने लगीं. अपनी बेचैनी के बीच शायद उनको मेरे चैन से लेटे रहने से जलन हुई क्योंकि मेरी ओर देखकर बोली, "खूब शूतलो". 

मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी पर काबू पाया. दरअसल उन्हें अंदाजा नहीं था कि उनके जोर जोर से बोलने पर मैं जाग गई हूँ, अधखुली पलकों से उनका परेशान चेहरा देख चुकी हूँ और अपने बारे में टिप्पणी भी सुन चुकी हूँ. उनके मुड़ते ही मैने कंबल से मुंह ढक लिया और बिना आवाज के हँस पड़ी. पता नहीं क्यों मुझे लगा मेरे साथ साथ बूंदे भी हँस पड़ी मानो कह रही हों- "ये होता है यात्राओं का असली आनंद. खलल वाली नींद और खीझ वाले पलों के बीच हँसी के मौके."

मैंने वक़्त देखा. अभी बारह भी नहीं बजे थे. वो महिला दुबारा किसी से फोन पर बात करने लगी थीं. अबकी बार आवाज थोड़ी संयमित थी. थोड़ी देर बात करने के बाद वो हँसने लगी. शायद गया स्टेशन पर उनका काम हो गया था. फोन रखकर वो बहुत जल्दी सो गईं. ट्रेन ने गति पकड़ी और मुझे भी दुबारा नींद आ गई.

रेल यात्रा और निर्विघ्न नींद शायद दो अलग चीजें हैं. अबकी बार नींद खुली M for Mango, N for Nest, O for Orange... सुनकर. रात के डेढ़ बज रहे थे. सामने वाले बर्थ पर बच्ची जग गई थी, मां बाप को जगा दिया था और उसको ज़ोर से पढ़ाई आई थी. यहाँ भी बाकी बातें बांग्ला में थी, समझ ना आई. इतना जरूर समझ आया कि मां बाप बड़ा लाड जता रहे थे बच्ची पर. नींद टूटने की खीझ कम हो गई और मन ही मन मां बाप के सब्र की सराहना करने लगी. साथ ही साथ बूंदों का ख्याल भी आया "इलाहाबाद से साथ चले थे, अभी पता नहीं कहां पहुंची होंगी बूंदे." मेरी ट्रेन के हावड़ा स्टेशन पहुंचने का समय था सुबह 05:45 बजे. अब चिंता होने लगी, ऐसे ही नींद में खलल पड़ता रहा तो पता नहीं सुबह नींद खुलेगी या नहीं. फिर ध्यान आया कि हावड़ा स्टेशन आखिरी पड़ाव है, शोर से नींद खुल ही जाएगी. 

सुबह वाकई शोर से ही नींद खुली. सारे लोग उतरने को तैयार थे. खिड़की से बाहर देखा तो हिन्दी, अंग्रेजी और बांग्ला में स्टेशन का नाम लिखा हुआ था. निगाहें बांग्ला भाषा पर अटक कर रह गईं. ये भाषा मैं नहीं जानती. मैं बहुत कुछ नहीं जानती. दुनिया में कोई भी सबकुछ नहीं जानता. दुनिया से 'जानकार' शब्द हटा देना चाहिए.

"अरे पगली, सबकुछ नहीं जानने में ही तो मनुष्य जीवन का आनंद है, वरना दुनिया से 'अचरज, अचंभा' इत्यादि शब्दों को हटाना पड़ेगा" अब मुझे लगने लगा था कि बूंदे गंगा मईया की लहरों को छोड़ कर मेरे दिमाग में ही तैर रही हैं. सर झटक कर मैं उतर पड़ी. 

हावड़ा स्टेशन का प्लेटफॉर्म 21 भोर के उजाले में मटमैला सा लगा. बहुत ज्यादा भीड़. अलग भाषा. कानों में आवाज आए पर मतलब का पता नहीं. पर एक आवाज सुनी और मतलब भी समझ आ गया, "आज छठो पूजा... भीड़ कोम" 

हां वो दिन छठ पूजा का था. सुबह वाले अर्घ्य का वक्त था पर होटल में चेक- इन का समय दो बजे था. यानि अभी नहाया नहीं जा सकता था. मैंने स्टेशन का जायजा लिया. दो तीन चक्कर लगाने के बाद कई चीजें समझ आ गईं. वेटिंग रूम पहली मंजिल पर था और अमानती समान गृह प्लेटफॉर्म 23 पर. गूगल मैप पर हावड़ा ब्रिज 100 मीटर की दूरी पर था. समान टिका कर मैं निकल पड़ी. 

पहला विचार- "इस जगह पर भीड़ बहुत है."

दूसरा विचार- "इस जगह पर बदबू बहुत है."

सर झटक कर नाक पर रुमाल रखा. बैग में मास्क रखना चाहिए था. कोरोना का डर चला गया और हम मास्क भूलने लगे हैं. 

खैर, सुंदर से हावड़ा स्टेशन के साथ सेल्फी खींच ली. ऐतिहासिक हावड़ा ब्रिज भी सामने नज़र आ गया. बहुत ज्यादा भीड़ और बहुत ज्यादा बदबू के बीच भी फोटो खिंचाना तो बनता था. मनुष्य घूमने इसीलिए जाता है कि फोटो खिंचाए और दूसरों को दिखाए. 

नाक दबाए वापस लौट पड़ी और वेटिंग रूम के लिए पहली मंजिल पर चढ़ पड़ी. चढ़ते ही हुगली मईया के दर्शन हो गए. गंगा की सहायक नदी हुगली. स्टेशन खत्म होते ही पीली टैक्सियों से भरी सड़क, फिर पार्किंग एरिया और फिर हुगली. सुबह की रौशनी में झिलमिलाती बूंदे.  

"एक मिनट, क्या ये वही बूंदे हैं जो इलाहाबाद में मिली थीं?"

"नहीं नहीं, ऐसा कैसे संभव है, गंगा की बूंदे हुगली में कैसे? सभी बूंदे एक जैसी दिखती हैं इसीलिए मुझे भ्रम हो रहा है."

फिर से सर झटक कर मैं वेटिंग रूम में चली गई. फोन चार्ज करने और थोड़ा आराम करने. आसपास घूमने की जगहों को गूगल पर ढूंढा तो सबकुछ 10 बजे खुलता था. 

आचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान यानि कलकत्ता वनस्पति उद्यान जाना तय किया. हावड़ा शहर की बदबूदार सड़कों से होते हुए मैं शिबपुर इलाके में पहुंच गई. वनस्पति उद्यान में प्रवेश करते ही जन्नत का एहसास हुआ. इतना सुंदर, इतनी हरियाली, आहा, मजा आ गया.


लेकिन, अभी संघर्ष बाकी था. 

प्रवेश द्वार पर जो गार्ड थीं उनको सिर्फ बांग्ला भाषा आती थी. 15 मिनट की मशक्कत के बाद हम दोनों एक दूसरे की बात थोड़ी सी समझ पाए. उन्होंने मेरे बैग से बिस्किट और चिप्स के पैकेट हटवा दिए, पानी की खरीदी हुई बोतल हटवा दिया लेकिन फ्लॉस्क रहने दिया. तब समझ आया वो प्लास्टिक हटाने की बात कह रहीं. इसके अलावा उन्होंने बहुत सी बातें और कहीं जो शायद अंदर के नियम थे और मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आए. मैंने सोचा किसी साइनबोर्ड पर पढ़ लूंगी. भाषाई समस्या देश के बाकी राज्यों में भी आई थी, पर इस बार ज्यादा महसूस हो रही थी.

खैर... मुझे बरगद का पेड़ देखना था. 270 साल पुराना बरगद वृक्ष. मेरे रोमांच की सीमा ना थी. दीदी को वीडियो कॉल किया और चल पड़ी. चारों ओर हरियाली, करीने से सजे कतार में लगे अलग अलग प्रजाति के पेड़- पौधे और कई सारी झीलें. मज़ा ही आ गया. सीधा चल कर मैं बाईं ओर मुड़ गई. लगा ये रास्ता बरगद वृक्ष तक तक जल्दी पहुंचा देगा. इक्का दुक्का लोग ही थे अंदर. पैदल चलने में बहुत आनंद आ रहा था और तभी सामने नज़र आईं चमकती हुई बूंदे. अपने ऊपर बड़े से स्टीमर और कई छोटी छोटी नाव का बोझ उठाए. अच्छा, यानि बगल से हुगली नदी प्रवाहित हो रही थीं. एकदम हरे हरे पेड़ों के बीच से झांक कर एकदम सफेद पानी का प्रवाह देखना आनंददायी था. नवंबर महीने की धूप और हवा भली लग रही थी. मेरा रोमांच और बढ़ने लगा था. मन हो रहा था नदी की तरफ मुंह करके बैठ जाऊं और रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का साहित्य पढ़ू. या राहुल सांकृत्यायन जी का कोई यात्रा वृत्तांत पढ़ू.  दीदी से इन्हीं बातों की चर्चा करते मैं आगे बढ़ने लगी. बीच बीच में मम्मी भी आकर उस वक़्त के किस्से बता दे रही थीं जब उन्होंने बोटेनिकल गार्डन देखा था. तब मम्मी नौवीं कक्षा में थीं. उम्र का बड़ा पड़ाव कितना अच्छा होता है न, आपके पास तमाम अनुभव होते हैं जो आप दूसरी पीढ़ी को बता सकते हैं. आज वाली बातचीत मुझे अच्छी लग रही थी. दीदी से साहित्य की बातें और मम्मी से उनके अनुभवों की बातें. 

मैं धन्य धन्य हो गई. शुक्रिया जिंदगी. 

मैं नदी के साथ वाली सड़क पर चल रही थी. दीदी और मम्मी से बात करते करते मैं बार बार अपनी बाईं ओर बहती हुगली की लहरों को देख ले रही थी. पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि हुगली की बूंदों को गंगा की बूंदों ने सारी बातें बता दी थीं और अब ये बूंदे मेरे यूं स्वच्छंद विचरण करने पर मुझे शाबाशी दे रही थीं. इनका नेटवर्क बड़ा मजबूत है, सारी बूंदे एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़ी जो हैं. तभी मुझे हुगली नदी सप्रेम मुस्कुराती नज़र आई मानों मेरे विचारों को पढ़ लिया हो. मैं वैसे भी सदैव हीं प्रकृति माता की शक्तियों के आगे नतमस्तक रहती हूँ, आज भी घुटने टेक दिए. 

एक बेंच पर अपना सामान टिका कर मैंने हुगली माता के साथ फोटो खींचा ली और वीडियो बना लिया. 


प्रफुल्लित, पुलकित, आह्लादित, आनंदित मन से मैं वनस्पति उद्यान की सुंदरता और अपने जीवन की सार्थकता की सराहना कर ही रही थी कि फोन बज उठा.

एक सहकर्मी की कॉल थी. "मूट कोर्ट हॉल खुल गया है और वहां पुताई का काम हो रहा है."

मैं अपनी काल्पनिक दुनिया से यथार्थ में लौट गई. सबसे पहले डर लगा. अभी थोड़ी देर पहले जो बूंदे मेरे स्वच्छंद विचरण के लिए मुझे शाबाशी दे रही थीं, अब फिर से मुझे चिढ़ाएंगी. मैंने कनखियों से हुगली की तरफ देखा. बूंदे शांत थीं. 

"अच्छा, यानि नटखट बूंदे कल रात से आज दोपहर होते होते मैच्योर हो गईं." 

"नहीं नहीं, जरूर ये शांति इन बूंदों की किसी बड़ी साजिश के पहले की शांति है."

मैं अब दाहिनी ओर मुड़ गई. मैंने साइनबोर्ड ढूंढा. मैप के हिसाब से बरगद वृक्ष आसपास ही था, पर पता नहीं क्यों नज़र नहीं आ रहा था. इक्का दुक्का लोगों से पूछने की कोशिश की पर भाषाई समस्या... अब मैं चलते चलते थकने लगी थी. पानी भी खत्म होने लगा था. खाने को तो कुछ था ही नहीं पास में. अब दोपहर की धूप भी चुभने लगी थी. एक सेकंड को सोचा, वटवृक्ष देखे बिना लौट जाऊं क्या. अगले ही पल सोचा, पता नहीं दुबारा कब आने का मौका मिले. हिम्मत बटोर कर फिर चल पड़ी.

... और सामने नज़र आया अपने जीवन के 270 वसंत देख चुका विशालतम बरगद. मैं मंत्रमुग्ध सी उस ओर चल पड़ी. 


वैसे तो भूख प्यास से बुरा हाल था, पर इस 270 साल के बुजुर्ग को देखकर अपनी युवावस्था को जागृत किया और हंसते मुस्कुराते फोटो खिंचाने लगी. मम्मी की यादें फिर ताजा हुईं, कहने लगी, "पहले लोग शाखाओं पर अपने नाम लिख दिया करते थे"

अच्छा, तभी अब इस वृक्ष को चारों ओर से घेर दिया गया है. सही किया, वरना अपने लंबे जीवनकाल में ये पेड़ पता नहीं कितने लोगों के नाम का टैटू अपने शरीर पर ढोता. हालांकि मेरी इस बात की बड़ी इच्छा हो रही थी इसकी छाया में बैठकर बातें करूं. पूछूं कि इतने सालों में क्या क्या महसूस किया. क्या मनुष्य वाकई सभ्यता की ओर उन्मुख है या और बर्बर होते जा रहा है. मौसम कितना बदला है. भाषा, पहनावा, रहन सहन, खान पान कितना बदला है.

पेड़ मौन रहा. गंभीर रहा, मानो कह रहा हो, "अपने सवालों के जवाब खुद ढूंढ़ो"

धूप बहुत तेज हो गई थी. मैं वापस चल पड़ी. इरादा ये था कि जल्दी से मेन गेट तक पहुंच जाऊं. साइनबोर्ड पर तरह तरह के बगीचों का जिक्र था, पर अब और चलने की ताकत नहीं बची थी. 

बूंदों ने फिर चिढ़ाया, "बड़ी आई खुद को राहुल सांकृत्यायन जी की पदयात्राओं की फैन कहनेवाली"

अब आगे बढ़ते हुए मेरे दिमाग में जो मैप बन रहा था वो ये था कि मेन गेट से मैं बाएं मुड़ी थी, फिर दाएं फिर एक और बार दाएं तो अब फिर से दाईं ओर मुड़ने पर मेन गेट आ जाएगा. यही सोच कर दाईं ओर मुड़ पड़ी, जल्दी ही एक गेट आ भी गया, पर ये वो गेट नहीं था जहां से मैंने प्रवेश किया था और जहां मेरा बाकी सामान रखा हुआ था. वहां के गार्ड से मैंने पूछा... फिर वही भाषाई समस्या. इशारों इशारों में जितनी बात समझ आई, उस रस्ते मैं फिर से चल पड़ी. 

रास्ता भटकने से कोई घबराहट नहीं हो रही थी. बस भूख और थकान से बुरा हाल था. लेकिन नज़ारे बहुत सुंदर थे. बीच बीच में कई सारी झीलें थीं. पानी की बूंदे मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं थी इस बार. मन ही मन ये वादा करते हुए कि दुबारा बहुत सारा समय लेकर यहां आऊंगी और बैठकर साहित्य पढूंगी, या फिर इन बूंदों से JURISPRUDENCE जैसे गंभीर विषय पर चर्चा करूंगी, इन्हें Doctrine of Social- Solidarity समझाऊंगी कि मनुष्य तुम्हारे जैसा स्वच्छंद नहीं हो सकता क्योंकि हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं; मैं सही गेट पहुंच गई. 

होटल में चेक इन का वक़्त भी हो चुका था. हावड़ा स्टेशन पहुंच कर अमानती सामान गृह से अपना सामान उठाया, कैब बुक किया और सोचा थोड़ी देर में होटल पहुंच कर नहा धुला कर थोड़ा आराम करके कोलकाता शहर में एक दो जगहें और घूम लूंगी क्योंकि अगले दो दिन तो इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस अटेंड करना था और उसी रात वापसी का टिकट था.

लेकिन...

अभी भाषाई संघर्ष बाकी था. कैब ड्राइवर से ठीक से संवाद नहीं हो पा रहा था. हमलोग कमर्शियल पार्किंग 2B पर खड़े थे, न मैं ड्राइवर को अपनी बात समझा पाई न उसकी समझ पाई. उसने कैब कैंसिल की. पेनाल्टी मुझपर लगी. ऐसे ही करके एक घंटे की मशक्कत के बाद एक कैब बुक हो पाई और मैं हावड़ा से कोलकाता पहुंच पाई.

थकान से बुरा हाल था. सोचा, गरम पानी से नहा लेती हूँ, थकान उतर जाएगी. 

लेकिन...

मेरा शक सही था. अभी बूंदों की साजिश का वक़्त था. बाथरूम में नल कुछ ऐसे लगे थे कि बंद नहीं हो पा रहे थे. नल तो ठीक ही लगे होंगे क्योंकि मेरी दोस्त नहाई थीं तो सही से बंद हो गए थे. मुझे समझ आया, ये बूंदे गंगा से निकल कर हुगली तक और अब मेरे बाथरूम तक मुझसे ठिठोली करने के मूड में हैं. गरम पानी के भाप से पूरा बाथरूम भर गया था. रूम सर्विस बुलानी पड़ी नल बंद करने के लिए. 

उस वक़्त तो बूंदों ने मुझसे ही साजिश की, पर अगली सुबह जब मेरी दोस्त नहाने गईं तो उनसे भी ठिठोली कर बैठी ये बूंदे. फिर से रूम सर्विस बुला कर नल बंद कराया.

हद होती है मतलब. स्वच्छंदता को लेकर मुझे चिढ़ाने तक तो ठीक था, पर अब यूं परेशान करना... लेकिन हम कर भी क्या सकते थे. बूंदों की शरारत के बीच नहा धुला कर कॉन्फ्रेंस अटेंड करने चले गए. 

बूंदों की ये शरारत अगली सुबह भी चली. फिर हम चेक आउट कर गए, दिन में कॉन्फ्रेंस अटेंड किया और शाम को वापस हावड़ा स्टेशन पहुंच गए. ट्रेन आने में अभी वक़्त था. गूगल पर पढ़ रखा था कि हावड़ा के घाट बड़े सुंदर हैं. फिर से अमानती सामान गृह में सामान टिका कर हम निकल पड़े.

लेकिन....

"यहाँ बदबू बहुत है"

"यहाँ भीड़ बहुत है"

"चलो वापस स्टेशन ही चलते हैं"

हुगली माता को प्रणाम किया. मन ही मन पुरजोर गुजारिश की बूंदों से कि अब बस करो, बहुत चिढ़ा लिया इस बार.

हुगली की लहरें शांत रहीं. बूंदों ने फुसफुसा कर कहा, "चलो, ठीक है. अब सही सलामत घर जाओ. फिर कभी अठखेलियां करेंगे... फिर कभी तुम्हारे विचारों को झकझोरेंगे... फिर कभी तुम्हारे दिमाग में शोर मचाएंगे... फिर कभी..."



Thursday, September 12, 2024

कर्मभूमि

कर्मभूमि 

(कथा सम्राट प्रेमचंद रचित उपन्यास "कर्मभूमि" का नाट्य- रूपांतरण )


 
नोट:- लेखिका का कथा सम्राट प्रेमचंद से संबंध --दूसरी कक्षा में थी जब दीदी की पाठ्यपुस्तक से ईदगाह पढ़ा था और प्रेमचंद से पहला परिचय हुआ था. आठवीं कक्षा में थी जब इनका पहला उपन्यास 'गबन' पढ़ा था. उसके बाद से प्रेमचंद का साथ कभी नहीं छूटा. उनका रचा हर पात्र मेरे जीवन में साकार रूप में यहाँ- वहाँ टकराता रहता है. कहने की जरुरत नहीं कि कथा सम्राट प्रेमचंद की लेखनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस काल में थी जब ये कथानक लिखा गया था. 
(लेखिका की क्षमा याचना:- सबसे जरुरी बात सबसे पहले.
अपनी छोटी सी बुद्धि से प्रेमचंद के रचे पात्रों को modern twist देने का सम्मान भरा साहस कर रही हूँ. मकसद सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है. वरना कथा सम्राट की लेखनी से छेड़छाड़ करने की न ही मेरी मंशा है और न ही उतना हुनर. औकात तो बिलकुल नहीं. )

 दृश्य 1 

(समय की तितली मंच पर आती है. )

समय की तितली:- मैं समय नहीं हूँ. मैं समय की तितली हूँ. उड़ते- फुदकते यहाँ वहाँ मंडराते मैंने देखी है युगों- युगों की कर्मभूमि. कर्मभूमि, जहाँ मनुष्यों ने किया है संघर्ष और सींचित किया है इस भूमि को अपने लहू से. कभी ये लहू पसीने के साथ बहा है और धरती को समृद्ध किया है तो कभी ये लहू किसी का सर काट के बहा है और धरती का सीना छलनी किया है. बहरहाल, हर युग में मनुष्य के कर्मों की साक्षी हूँ मैं.
आइये आपको दिखती हूँ अतीत की कर्मभूमि. 

(तितली फुदकते फुदकते मंच से चली जाती है. दूसरी तरफ से सलीम और अमरकांत मंच पर आते हैं. )

सलीम- अरे अमर, मेरे जिगर. किस बात की परेशानी है तुम्हें? मुँह क्यों लटकाए हो ?
अमर- ऐसा है सलीम, शादीशुदा आदमी का मुँह लटका ही रहता है. 
सलीम- भाईजान, नाशुक्रापन ठीक नहीं होता। इतनी अच्छी तो है भाभी. 
अमर- तुम्हे तो अच्छी ही लगेंगी, सच्चाई तो मैं जानता हूँ. 
सलीम- तो उस हकीकत से हमें भी रूबरू कराओ. 
अमर- भाई, मैं पराधीन भारत के स्वंत्रता संग्राम में भाग लेना चाहता हूँ. गरीबों के उत्थान के लिए कार्य करना चाहता हूँ जबकि सुखदा देवी और बाबूजी गरीबों का पैसा हड़प कर स्वयं ऐश्वर्य और भोग विलास का जीवन जीना चाहते हैं. ये लोग देश का नहीं सोचते. 
सलीम- देखो, बाबूजी का कुछ नहीं किया जा सकता. और भाभी को भी एक मुकम्मल जहाँ की खोज है तो इसमें गलत क्या है ?
            सुनो, भाभी आती हैं एक well- to- do family से. ग़ुरबत उन्होंने देखा नहीं. लेकिन तालीम हांसिल की है. तुम सही तरीके से अपना point of view उनके सामने रखो तो सही. she will understand. 
अमर- भाई, मैं देश के लिए शहीद होना चाहता हूँ. बाबूजी ने जबरदस्ती शादी करवा दी. वो भी ऐसी लड़की से, जिससे मेरे सिद्धांतों का कोई मेल नहीं. 
सलीम- भाई मेरे, वतन के लिए शहादत ही इकलौता तरीका नहीं है. 

(तभी पीछे से प्रोफेसर शांता आ जाती हैं )h

प्रोफेसर शांता- Yes, this is what I have taught you. 

(दोनों प्रोफेसर को greet करते हैं.)

प्रोफेसर शांता:- You can serve the nation by other ways also. Sacrificing your life is not always required. You can take care of your family and country both. Think of different ways my child. 
दोनों एक साथ- Yes Professor.
प्रोफेसर शांता:- Anyways, मैं जा रही हूँ बस्ती में साक्षरता mission पर. because freedom without education would be of no use. 
                And Salim, Congratulations for cracking Civil Services Examinations. You are one of the few Indians who have cleared it. 
सलीम:- Thank you Professor. I am your student. 
प्रोफेसर शांता:- You both are my brightest students... and Salim, avail this opportunity to serve the nation. This service is predominantly occupied by the English, who are not empathetic towards Indians. You can bring the Change.
and Amar, you also think of certain ways to reform the society instead of sacrificing your life. Bless you my kids. 

(प्रोफेसर  चली जाती हैं. )

अमर:- क्या बलिदान किया है न प्रोफेसर ने. विलायत से पढाई करके आई हैं, यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं, अच्छी तनख्वाह है. ऐश- आराम की ज़िंदगी जी सकती थी, पर ज़मीनी स्तर पर काम कर रही हैं. 
सलीम:- तुम भी ऐसे ही काम करो मेरी जान. अपनी जान लेने पर क्यों उतारू हो?
अमर:- हम्म्म, चलो कम से कम तुम्हे तो जीवन की दिशा मिल गई. अब training के लिए England जाओगे और गोरी मेम से आँखे लड़ाओगे दिलफेंक आशिक़ कहीं के. 
आँखे लड़ाने से याद आया, उनकी क्या खबर है, जिनसे तुम्हारी आँखे चार हुई थीं ?
सलीम:- हम तो फ़िदा हो गए उनकी तिरछी निगाहों पर, हमें क्या पता था सनम टेढ़ा ही देखते हैं। 
अमर:- (सर पकड़ लेता है) 
यानि वहाँ भी बात नहीं बनी. अबे इतनी जल्दी तो भारत में मौसम नहीं बदलते, जितनी जल्दी तुम्हारे दिल का मौसम बदल जाता है. छोड़ो, अब गोरी मेम लाना. नौकरी पर ध्यान दो. 
सलीम:- नौकरी करना कौन चाहता है. और गोरी मेम कौन लाना चाहता है. मैं नज़्मे लिखना चाहता हूँ और सक़ीना के सामने उन्हें गुनगुनाना चाहता हूँ बस. निक़ाह करना चाहता हूँ सक़ीना से. 
अमर:- हाँ तो करो जो करना चाहते हो, रोका किसने है?
सलीम:- अब्बा नहीं मानेंगे. 
अमर:- (नाउम्मीदी से सर हिलता है)   
चलो मेरे घर चलते हैं. 

दृश्य 2 

(मंच पर प्रकाश दूसरी ओर पड़ता है, जहाँ सुखदा, नैना, सकीना और सकीना की अम्मी मंच पर आती हैं.)  
सुखदा:- आओ सबलोग आँगन में ही बैठते है. अंदर काफी घुटन हो रही है. 

(सब चटाई पर बैठ जाते हैं. सुखदा के हाथ में किताब है. सकीना कढ़ाई कर रही है. सकीना की अम्मी आलू छील रहीं हैं और नैना आलू के चिप्स काट रही है. )

सुखदा:- आजकल मौसम ऐसा होने लगा है कि हरपल जी घबराता है. सकीना, अपनी सुरीली आवाज में कुछ सुनाओ, शायद कलेजे को ठंडक पड़े. 
सक़ीना:-  जी, शेख मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ का कुछ सुनाती हूँ. 
"अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे।
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे. "

सुखदा:- वाह, वाह, वाह. क्या बात है सक़ीना। कितना अच्छा सुनाया. तुम हर काम में निपुण हो. घरदारी के सारे काम जानती हो, सिलाई- कढ़ाई करती हो और सबसे बढ़कर इतनी सुंदर नज़्में सुनाती हो. सलीम भाई को इश्क़ है तुम्हारे इस हुनर से. देखा नहीं, कितनी प्यार भरी निगाहों से वो तुम्हे देखते हैं. कहो तो बात चलाऊँ।
सक़ीना:- ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया भाभी, लेकिन हमारा और उनका कोई मेल नहीं. वो महलों में रहनेवाले और हम  झोंपड़ी में. निकाह हो भी जाए तो आगे गुज़ारा नहीं हो पाएगा. हमें अपनी खुद्दारी बहुत प्यारी है. ऐसे इश्क़ को ठुकराना ही बेहतर. 
सुखदा:- देख रहीं हैं चाची। 
सक़ीना की अम्मी:- सुखदा बेटी, बात तुम्हारी दुरुस्त है लेकिन हम अपनी सक़ीना का कहा मानेंगे. जहाँ इसका दिल चाहेगा, वहीं निक़ाह पढ़वाएंगे. हुनर दिया है अल्लाह ने मेरी बेटी को. और पढ़ना- लिखना तुमने सिखा दिया.  झोपड़ी में छिपा खजाना है मेरी बेटी. कोई शहजादा भेजेंगे अल्लाह इसके लिए. 
सक़ीना:- मेरी प्यारी अम्मी. (गले लग जाती है.) 
सुखदा:- अरे- अरे. माँ- बेटी का प्यार देखकर मुझे मेरी माँ की याद आ गयी. बड़े नाज़ो से पाला है उन्होंने मुझे। अब ससुराल आकर पति ने मेरा मान नहीं रखा. वरना एक दौर था...

(उसकी बात अधूरी रह जाती है. बीच में हीं नैना उसके गले लग जाती है.)

नैना:- अरे भाभी, हम आपसे बहुत प्यार करते हैं. 
सुखदा:- जानती हूँ नैना. एक तुम ही हो जिसे मेरी कद्र है, वरना बाबूजी ने मुझे मेरी दौलत के लिए अपनी बहू बनाया था और तुम्हारे भईया, हुँह, पिता के सामने ना नहीं कर पाए तो बस शादी कर ली. समझने की कोशिश  भी नहीं की मुझे. बस अपनी धारणा बना ली कि मैं अमीर घर की हूँ तो गरीबों का शोषण ही करुँगी. अरे मुझसे बात तो करते. उन्हें क्या पता मैं कितनी आतुर हूँ देश सेवा के लिए. लेकिन नहीं, बाबूजी का गुस्सा मुझपर उतारते हैं. 
नैना:- हाँ भाभी, बाबूजी ने कभी हम दोनों भाई- बहनों की नहीं सुनी. भईया इसीलिए विद्रोही स्वभाव के होते जा रहे. 
    अच्छा, वो सब छोड़िए। मेरी प्यारी भाभी का मन अच्छा करने के लिए मैं एक गाना सुनाती हूँ. 

(नैना गाना गाती है. "जो मांगी थी दुआ" सभी वाह वाह करते हैं.  तभी अमर और सलीम घर पहुंचते हैं. सब आपस में दुआ- सलाम करते हैं.  )

अमर:- वाह मेरी प्यारी बहन, कितना मधुर गाती हो, कलेजे को ठंडक पड़ जाती है. 

( तभी सलीम सक़ीना की तरफ देखकर कहता है.)

सलीम:- सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं,
            ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं. 
सुखदा:- वाह भाईसाहब, क्या सुनाया है. जवाब देने के लिए हमारी सक़ीना कोई कम है क्या? जवाबी शेर पेश करो बहन. 
सक़ीना:- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
                ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो. 
सलीम:-  तू खुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तो जैसा,
                दोनों इंसां हैं, तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें. 
सक़ीना:-  उस अदा से भी हूँ मैं आशना, तुझे जिस पे इतना गुरुर है,
                मैं जिऊंगी तेरे बगैर भी, मुझे ज़िंदगी का शऊर है. 

(सभी वाह वाह कर ही रहे होते हैं कि लाला समरकांत घर आ जाते हैं. )

लाला समरकान्त:- नैना, बेटी कहाँ हो? 

(नैना जल्दी से कुर्सी खींचकर बाबूजी को बैठने को कहती है. सुखदा पानी का लोटा लेकर आती है. अमर थोड़ी दूर खड़ा हो जाता है.  सक़ीना और उसकी अम्मी भी थोड़ा दूर जाकर पीछे खड़े हो जाते हैं. 

लाला समरकान्त:- बहू, एक बहुत शुभ समाचार लाया हूँ. नैना बेटी का विवाह लाला मनीराम से तय कर दिया है. तुम तैयारियों में लग जाओ. 
सुखदा:- किंतु बाबूजी, लाला मनीराम काफी बड़ी उम्र के हैं. और तो और लोग कहते हैं, उन्होंने अपनी पहली पत्नी को मार डाला था. 
लाला समरकान्त:- सब अफवाह है बहू. लाला मनीराम ऊँची रसूख वाले व्यक्ति हैं. अरे उनकी उठना- बैठना लार्ड मिंटो तक के साथ है. जलन के मारे लोग उनको बदनाम करने की साजिश में लगे रहते हैं. लाला मनीराम से नैना का लगन करा के हमारा उठना बैठना भी अंग्रेज अफसरों के साथ हो जाएगा. हमारे व्यापार में मुनाफ़ा होगा। 
अब अमरकांत की तरह देशसेवा का बीड़ा उठाने से पेट नहीं पलता। पहले अपनी सेवा, फिर देश की सेवा. 
सुखदा:- बाबूजी, एक बार नैना की मर्ज़ी भी पूछ लेते. 
लाला समरकान्त:- ये तुम क्या कह रही हो बहू. बच्चों की मर्ज़ी नहीं पूछी जाती. यही है हमारे घर की परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन. 
तुम तैयारी करो. 

(लाला समरकान्त बाहर चले जाते हैं. अमर और सलीम निराशा से सर हिलाते खड़े रहते हैं. सुखदा अंदर से शादी की चुन्नी ले आती है. )

नैना सक़ीना से कहती है:- कितनी भाग्यशाली हो बहन. तुम्हारी माँ तुम्हारी मर्ज़ी का ध्यान रखती हैं. 

(सक़ीना सांत्वना से नैना का हाथ सहलाती है. सुखदा नैना को शादी वाली लाल चुन्नी ओढ़ाती है. सक़ीना की अम्मी  फूलों की टोकरी ले आती है.  नेपथ्य से बैंड बाजे की आवाज आती है और मंच पर लाला मनीराम, लार्ड मिंटो, लाला समरकान्त आते है. लाला समरकान्त बारात का स्वागत करते हुए आते हैं. बीच मंच पर मनीराम और नैना सात फेरे लेते हैं. सभी फूल फेंकते हैं. लाला समरकान्त का ध्यान बेटी के विवाह से ज्यादा लार्ड मिंटो की चापलूसी पर है. विवाह संपन्न हो जाता है. नैना और मनीराम को छोड़कर सभी लोग मंच से चले जाते हैं. मनीराम दारु की बोतल उठा लेता है. नैना हैरानी से देखती है. )

मनीराम:- ऐसे क्या घूर रही हो समरकान्त की बेटी. आँखे फोड़ दूँगा। कई सालों से तुम्हारा बाप व्यापार में मुझसे आगे निकल रहा था. उसकी बेटी से शादी करके मैं उसको नीचा दिखाऊंगा. समरकान्त की सारी दौलत अब मेरी. अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। 

(मनीराम क्रूरता से हँसता है और नैना को धक्का मारकर गिरा देता है. उसके बाद दारू की बोतल नैना के हाथ में पकड़ा देता है और मंच के दूसरी तरफ जाता है, जहाँ लार्ड मिंटो बैठा है. ) 

मनीराम:- हुजूर हुजूर हुजूर, कैसे हैं आप. 
लार्ड मिंटो:- अरे मनीराम, टुम्हारा अभी अभी शाडी हुआ, और टुम हमसे मिलने चला आया. 
मनीराम:- अरे हुजूर, शादी- ब्याह तो लाला समरकांत की धन दौलत हड़पने के लिए किया है मैंने. असली आनंद तो हुजूर की सेवा में है. आप बस हमारा टेंडर पास करवा दें, हम आपको... 

(लार्ड मिंटो मनीराम की बात बीच में हीं काट देता है. )

लार्ड मिंटो:- Speaking of ढ़न- डौलत, did you collect tax  ? टुम tax collect किया ? Don't make excuses like rain नहीं हुआ, crop नहीं ऊगा. टुम tax collect करके लाएगा तभी हम टुम्हारा tender का सोचेगा. नहीं टो हम ये tender लाला समरकान्ट को डेगा।
मनीराम:- नहीं नहीं हुजूर, नाराज़ क्यों होते है. मैं कुछ भी करके लगान वसूल करूँगा. लाला समरकांत को ये टेंडर मत दीजिए. 

(मनीराम हाथ जोड़ता हुआ चला जाता है. )

लार्ड मिंटो:- Stupid Indians, It is so easy to rule this country. Just divide and rule.

(लार्ड मिंटो मंच से चला जाता है. मंच पर सुखदा, सक़ीना और सक़ीना की अम्मी आती हैं. )

सुखदा:- पता नहीं नैना ससुराल में कैसी होगी? 

(तभी सामने से नैना आ जाती है. )

सुखदा:- अरे नैना कैसी हो? (गले लगा लेती है. )
नैना:- भाभी, बचपन से बाबूजी का कहा माना, उसका ये परिणाम हुआ. अब मैं अपने दिल की सुनूंगी. मैं जा रही हूँ प्रोफेसर शांता की मुहीम में शामिल होने. अब ना मैं बाबूजी की सुनूंगी ना ही पति की. स्त्रियों को अपनी मर्जी से रहने दे, ऐसा समाज बनाने के लिए संघर्ष करना ही होगा.
सुखदा:- मैं भी यही सोच रही हूँ. घर की चारदीवारी में घुटने से अच्छा है, समाज के उत्थान के लिए कर्म किया जाए. 
सक़ीना और अम्मी एक साथ:- हम भी चलेंगे. 

(सब एकसाथ आगे बढ़ते हैं. सामने से प्रोफेसर शांता, अमर और सलीम आते हैं. सब एकसाथ मिल जाते हैं.)

सुखदा:- हम सब भी आपकी मुहीम में शामिल होना चाहती हैं. (अमर सम्मान भरी नज़रों से सुखदा को देखता है.)
प्रोफेसर शांता:- बहुत अच्छी बात है. 
नैना:- जी, हमें लगता है अगर आज हम अच्छे कर्म करेंगे तो हमारा भविष्य अच्छा होगा. 
            जाने कैसा होगा हमारा भविष्य 

(नैना सपनों में खो जाती है, तभी समय की तितली आकर चुटकी बजाती है.)

समय की तितली:- मैं दिखा सकती हूँ कैसा होगा भविष्य. ... मैं समय की तितली हूँ. परदे के गिरते ही परदे के उठते ही मैं दिखा सकती हूँ भविष्य. ये देखो. 

(तितली चुटकी बजाती है. पर्दा गिरता है. 
पर्दा उठता है. न्यूज़ एंकर ढोलकी शर्मा न्यूज़ पढ़ रही है. ) 

ढ़ोलकी शर्मा:- नमस्कार, न्यूज़ ताबड़तोड़ पर आपका स्वागत है. मैं हूँ आपकी होस्ट एंड दोस्त ढोलकी शर्मा. अब तक की सबसे बड़ी खबर आ रही है राष्ट्रपति भवन से. भारत के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर माननीय राष्ट्रपति श्रीमती आनंदिता भारतीय राष्ट्र को सम्बोधित करने वाली है. बस चंद पलों का इन्तजार और ये लीजिये... 

मंच पर दूसरी तरफ प्रकाश पड़ता है, जहाँ  माननीय राष्ट्रपति श्रीमती आनंदिता भारतीय बैठीं हैं.)  

श्रीमती आनंदिता भारतीय :- मेरे प्यारे देशवासियों
                                            नमस्कार 
भारत के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश और विदेश में रहनेवाले आप सभी भारत के लोगों को मैं हार्दिक बधाई देती हूँ. हमारी सीमाओं की रक्षा में तैनात सशस्त्र सेनाओं और अर्धसैनिक बलों तथा आंतरिक सुरक्षा बलों के जवानों को मैं विशेष रूप से शुभकामनाएं देती हूँ. मैं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में योगदान देने के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग के सभी नागरिकों को बधाई देती हूँ. 
जब हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं, तब एक राष्ट्र के रूप में हमने मिल- जुलकर जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उनका उत्सव मनाते हैं. इन उपलब्धियों को प्राप्त करने में वर्तमान समाज के नागरिकों के योगदान के साथ- साथ स्वतंत्रतता- सेनानियों के योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. हम पराधीन भारतीय समाज के उन सभी व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है, किंतु जिनके त्याग की बदौलत हीं आज विश्व- मानचित्र पर हमारी सम्मानजनक उपस्थिति है.
संविधान के लागू होने के दिन से लेकर आजतक हमारी यात्रा अदभुत रही है. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास से हमारी सामरिक शक्ति अत्यंत सुढृढ़ हुई है तथा अंतरिक्ष में उपग्रहों की स्थापना से संचार प्रणाली में अभूतपूर्व परिवर्तन आये हैं. आज भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यस्थाओं में से एक है. ओलिंपिक जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारतीय खिलाडियों विशेषकर महिलाओं ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है. हर क्षेत्र में अपना देश सफलता की नयी ऊंचाइयों को छू रहा है, तथापि कुछ चुनौतियां अभी भी हैं. 
मैं देशवासियों से निवेदन करती हूँ कि अपनी इस कर्मभूमि पर ईमानदारीपूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहें। 
आप सबको पुनः गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ।
जय हिन्द, जय भारत. 

(पर्दा गिरता है. 
पर्दा उठता है. न्यूज़ एंकर ढोलकी शर्मा न्यूज़ पढ़ रही है. )

ढ़ोलकी शर्मा :- जी हाँ, पूरे देश में जश्न का माहौल है. लेकिन देश के कुछ हिस्सों में किसानों की स्थिति को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं, तो कहीं पर समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहें है. आखिर कबतक भारत का समाज ऐसा रहेगा.

इन्ही बड़ी खबरों के बीच एक और बड़ी खबर आ रही है मुंबई शहर से जहाँ Business tycoon निवेदिता अंबानी अपने आलीशान, भव्य Cultural Centre के उद्घाटन समारोह पर आ रहीं हैं.

(निवेदिता अंबानी मंच पर आती हैं. बहुत सारे मीडिया वाले उनकी फोटो वीडियो लेते मंच पर एक तरफ से दूसरी तरफ चले जाते हैं. )

निवेदिता अंबानी:- जय श्री कृष्णा
कैसे हैं आप सब ? Thank you so much for coming and being the most spectacular audience. You know मैंने बचपन से सोचा था कि I will create some place like this to preserve Indian culture and Indian heritage क्योंकि कहते हैं ना India is where it all started.
This world class Cultural Centre is my dream come true. 
And now, with immense pride and joy, I declare the Nivedita Ambani Cultural Centre open. It is my humble dedication to new India. 

(ठीक इसी वक्त नेपथ्य से गाना बजना शुरू होता है, "तन आनंदित मन आनंदित..." और निवेदिता अंबानी नृत्य करती हैं. 
जब इनका नृत्य समाप्त होता है तो समय की तितली चुटकी बजाकर इनको फ्रीज कर देती है) 

समय की तितली: अपने समय में जाओ
(निवेदिता अंबानी और ढोलकी शर्मा शरीर में कोई हरकत किए बिना सिर्फ पैर हिलाते हुए मंच से बाहर चली जाती हैं)

नैना: कितना सुंदर भविष्य है हमारा.
अम्मी: हां, पर ऐसा मुकम्मल आज़ाद हिंदुस्तान पाने के लिए हमें आज लड़ाई लड़नी होगी. 
सुखदा और अमर एकसाथ: तो चलो अपने कर्म करें.

(इतने में नैना सबसे आगे आ जाती है.)

नैना: अंग्रेजो, भारत छोड़ो 
सभी एक साथ: अंग्रेजो, भारत छोड़ो 

(तभी सामने से लॉर्ड मिंटो और लाला मनीराम आते हैं)

लॉर्ड मिंटो: टूम हमको ढ़ोखा दिया. टूम कहता टूम हमारा साठ है and your family is protesting against me. हम टूम्हारा टेंडर cancel करता 

मनीराम: नहीं हुज़ूर, ऐसा ना करें.
इसको तो...

(मनीराम बंदूक निकलता है और नैना को गोली मार देता है. नैना गिरती है. समरकान्त दौड़ता हुआ आता है) 

समरकान्त: मेरी बेटी को मार डाला (विलाप करता है) अब होगी क्रांति

समरकान्त और बाकी सब लोग लॉर्ड मिंटो और मनीराम पर टूट पड़ते हैं, तभी तितली सबको फ्रीज कर देती है. लॉर्ड मिंटो और मनीराम मंच से बाहर खिसक लेते हैं) 

समय की तितली: और इस तरह नैना जैसे असंख्य लोगों का लहू इस कर्मभूमि पर बहा और देश स्वतंत्र हुआ. 

(नेपथ्य से प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी की आवाज आती है : At the stroke of midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom.
सभी लोग अनफ्रीज हो जाते है और गले मिलते हैं)

समय की तितली: ये थी कल और आज की कर्मभूमि. जवां दिल तब भी धड़कते थे, अब भी धड़कते हैं. पति पत्नी में मतभेद तब भी होते थे, अब भी होते हैं और सबसे बढ़कर... किसी भी युग में चुनौतियों से खाली नहीं होती है ये कर्मभूमि.
ये तुम्हारी कर्मभूमि है.

सभी एक साथ: ये हमारी कर्मभूमि है. 

पर्दा गिरता है.











Tuesday, July 9, 2024

An Emotional Note to Maggi



Dear Maggi, thank you for being there every time I need you. 

I know during summer vacation, We had a different relationship. I resorted to you just for fun after overeating homemade (Mom made) food.

BUT now, when vacation ends, I am on my own and I came home tired from work, you saved me from starving. 

You were there, when I needed something for midnight munching during winters. You were there when I wanted to enjoy rain but was not in a mood to get into complicated process of making पकौड़ा . 

Thank you for saving me during examinations and sickness when cooking anything else becomes a tedious task. 

Thank you for being a quintessential meal on mountains. 

Thank you for being so adaptive. 

Dear Maggi, thank you for being there.

 शहतूत बचपन में खाए गए इस भूले बिसरे फल पर अचानक निगाह पड़ी... कुछ सेकंड्स लगे याद आने में कि ये तो शहतूत है. ये वही है जिसे हम तूत कहा करते...