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Wednesday, January 17, 2024

 जाड़े की शाम 



उस धुंधली शाम में, 
पेड़ भी खामोश थे. 
पक्षी घोंसले में दुबके थे,
और वो भी खामोश थे. 

गली में खेलता हुआ बच्चा, 
माँ के बुलावे पर घर गया. 
दूध पीकर सो गया, 
और खामोश हो गया. 

दफ्तर वाले बाबू साहब, 
जल्दी- जल्दी घर लौटे. 
दिनभर बोल कर थके थे,
टीवी खोल खामोश हुए. 

सब्जी वाली अपनी झोपड़ी में, 
आग तापती चुप बैठी. 
सत्तू से काम चलाया, 
और निंदिआ में खामोश हुई. 

भौंकते हुए कुत्ते भी,
घरों के पीछे दुबक गए. 
रोटी मिली या न मिली,
ठण्ड से खामोश हुए. 

आज अचानक अपनी पुरानी डायरी हाथ लगी. पन्ना खुला और तारीख़ छपी थी, 14/01/2008. ज़िंदगी के उस पिछले पन्ने पर यह कविता लिखी थी. चेहरे पर मुस्कान फैल गई. मुझे बिल्कुल याद नहीं था कि कुछ 15- 16 साल पहले भी मेरी नज़रों में जाड़े की शाम ख़ामोश हुआ करती थी. आज भी ये ख़ामोशी मुझे पसंद है. ऐसा लगता है मानो परियों के देश आ गए हों. मानों प्रकृति माता अपने आवरण में हमें छुपा कर दुनिया की हर मुसीबत से सुरक्षा प्रदान कर रहीं हों. मानों ईश्वर स्वयं धरती पर उतर आयें हों हमसे मिलने के लिए... 
तो ये पोस्ट मेरी पुरानी यादों से निकली नई मुस्कान के नाम... 

4 comments:

  1. ये कविता लिख कर कवियत्री फिर खामोश हुई 🤪🤪

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    1. Hahaha, kavyitri agli post pr apni khamoshi todegi 😆

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